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यशस्तिलकचम्पुगत-उपासकाध्ययन
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संधानं पानकं धान्य पुष्पं मूलं फलं दलम् । जीवयोनि न संग्राह्यं यच्च जीवैरुपदतम् ।।३१२ अमि मिश्रमुत्सगि कालदेशदशाश्रयम् । वस्तु किञ्चित्परित्याज्यमपीहास्ति जिनागमे ।।३१३ यदन्तःशषिरप्रायं हेयं नालीनलादि तत् । अनन्तकायिकप्रायं बल्लीकन्दादिकं त्यजेत् ॥३१४ द्विदलं द्विदलं प्राश्यं प्रायेणानवतां गतम् । शिम्बयः सकलास्त्याज्याः साधिताः सकलाश्च या: ।३१५ तत्राहिसा कुतो यत्र बव्हारम्भपरिग्रहः । वञ्चके च कुशीले च नरे नास्ति दयालुता ॥३१६ शोकसन्तापसंक्रन्दपरिदेवनदुःखधीः । भवन्स्वपरयोजन्तुरसद्वेद्याय जायते ॥३१७ कषायोदयतीवात्मा भावो यस्योपजायते । जीवो जायेत चारित्रमोहस्यासो समाश्रयः ।। ३१८ मंत्रोप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि यथाक्रमम् । सत्त्वे गुणाधिके क्लिष्टे निर्गुणेऽपि च भावयेत् ।।३१९ कायेन मनसा वाचाऽपरे सर्वत्र देहिनि । अदुःखजननी वृत्तिमैत्री मैत्रीविदा मता ॥३२० तपोगुणाधिके पुंसि प्रश्रयाश्रयनिर्भर: । जायमानो मनोरागः प्रमोदो विदुषां मतः ॥३२१ दीनाभ्युद्धरणे बुद्धिः कारुण्यं करुणात्मनाम् । हर्षामर्षोज्झिता वृत्तिर्माध्यस्थ्यं निर्गुणात्मनि ॥३२२ इत्थं प्रयतमानस्य गृहस्थस्यापि देहिनः । करस्थो जायते स्वर्गो नास्य दूरे च तत्पदम् ॥३२३ अचार, पानक, धान्य, फल, मूल, फल और पत्तोंको जीवोंकी योनि होनेसे ग्रहण नहीं करना चाहिए । तथा जिसमें जीवोंका वास हो ऐसी वस्तु भी काममें नहीं लेनी चाहिए ।।३१२। जिनागममें कोई वस्तु अकेली त्याज्य बतलायी हैं,कोई वस्तु किसीके साथ मिल जानेसे त्याज्य हो जाती हैं। कोई सर्वदा त्याज्य होती हैं और कोई अमुक काल, अमुक देश और अमुक दशामें त्याज्य होती हैं ।।३१३।।जिसके बीचमें छिद्र रहते है ऐसे कमलडण्डी वगैरह शाकोंको नहीं खाना चाहिए।
और जो अनन्तकाय है, जैसे लता, सूरण आदि उन्हें भी नहीं खाना चाहिए ॥३१४।। पुराने मूंग, उडद, चना आदिको दलने के बाद ही खाना चाहिए, बिना दले सारा मूंग, सारा उडद वगैरह नहीं खाना चाहिए । और जितनी साबित फलियाँ है चाहे वे कच्ची हों या आगपर पकायी गयी. हों, उन्हें नहीं खाना चाहिए। उन्हें खोलकर शोधने के बाद ही खाना चाहिए ॥३१।। जहाँ बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह है वहाँ अहिंसा कैसे रह सकती है? तथा ठग और दुराचारी मनुष्यमें दया नहीं होती ॥३१६।। जो मनुष्य स्वयं शोक करता हैं तथा दूसरोंके शोकका कारण बनता हैं, स्वयं सन्ताप करता है तथा दूसरोंके संतापका कारण बनता है, स्वयं रोता हैं तथा दूसरोंको रुलाता या कलपाता है, स्वयं दुःखी होता हैं और दूसरोंको दुःखी करता है, वह असातावेदनीय कर्मका बन्ध करता हैं ।।३१७।। जिसके कषायके उदयसे अति संक्लिष्ट परिणाम होते हैं वह जीव चारित्रमोहनीय कर्मका बन्ध करता है ।। २९८ ।।
मंत्री, प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाका स्वरूप-सब जीवोंसे मैत्री भाव रखना चाहिए । जो गुणोंमें अधिक हों उनमें प्रमोद भाव रखना चाहिए । दुःखी जीवोंके प्रति करुणा भाव रखना चाहिए। और जो निर्गुण हों, असभ्य और उद्धत हों उनके प्रति माध्यस्थ्य भाव रखना चाहिए ।।३१९।। 'अन्य सब जीवोंकों दुःख न हो' मन, वचन और कायसे इस प्रकारका बर्ताव करनेको मैत्री कहते है।।३२०॥ तप आदि गुणोंसे विशिष्ट पुरुषको देखकर जो विनयपूर्ण हार्दिक प्रेम उमडता है उसे प्रमोद कहते है ।।३२१।। दयालु पुरुषोंकी गरीबोंका उद्धार करनेकी भावनाको कारुण्य कहते हैं । और उद्धत तथा असभ्य पुरुषोंके प्रति राग और द्वेषके न होनेको माध्यस्थ्य कहते हैं ।।३२२।। जो प्राणी गृहस्थ होकर भी इस प्रकारका प्रयत्न करता है, स्वर्ग तो
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