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________________ १६० श्रावकाचार-संग्रह हिसास्तेयानताब्रह्मपरिग्रह विनिग्रहाः । एतानि देशत: पञ्चाणवतानि प्रचक्षते ॥ ३०० संकल्पपूर्वकः सेव्ये नियमो व्रतमुच्यते । प्रवृत्तिविनिवृत्ती वा सदसत्कर्मसंभवे ॥३०१ हिसायामनते चौर्यामब्रह्मणि परिग्रहे । दृष्टा विपत्तिरत्रव परत्रैव च दुर्गतिः ।। ३०२ यत्स्यात्प्रमादयोगेन प्राणिषु प्राणहापनम् । सा हिंसा रक्षणं तेषामहिंसा तु सतां मता ॥ ३०३ विकथाक्षकषायाणां निद्रायाः प्रणयस्य च । अभ्यासाभिरतो जन्तुः प्रमत्तः पकिकीर्तितः ॥ ३०४ देवतातिथिपित्रर्थ मन्त्रौषधभयाय वा । न हिस्यात्प्राणिन सनिहिंसा नाम तद्वतम् ॥ ३०५ गृहकार्याणि सर्वाणि दृष्टिपूतानि कारयेत् । द्रवद्रव्याणि सर्वाणि पटपूतानि योजयेत् ।। ३०६ आसनं शयनं मार्गमन्त्रमन्यच्च वस्तु यत् । अदृष्टं तन्न सेवेत यथाकालं भजन्नपि ।। ३०७ वर्शनस्पर्शसंकल्पसंसर्गत्यक्तभोजिताः । हिंसनाक्रन्दनप्रायाः प्राशप्रत्यूहकारकाः ।। ३०८ अतिप्रसङ्गहानाय तपसः परिवृद्धये । अन्तरायाः स्मृताः सद्भिर्वतबीजविनिक्रियाः ।। ३०९ अहिंसावतरक्षार्थ मूलवतविशुद्धये । निशायां वर्जयेद्भुक्तिमिहामुत्र च दुःखदाम् ।। ३१० आश्रितेषु च सर्वेषु यथावद्विहितस्थितिः । गृहाश्रमी समीहेत शारीरेऽवसरे स्वयम् ।। ३११ शिक्षाव्रत ये बारह उत्तरगुण हैं ॥२९९।। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहका एक देश त्याग करनेको पाँच अणुव्रत कहते हैं ।।३००।। सेवनीय वस्तुका संकल्पपूर्वक त्याग करना व्रत हैं। अथवा अच्छे कार्यो में प्रवृत्ति और बुरे कार्योसे निवृत्तिको व्रत कहते हैं ॥३०१।। हिंसा करने,झूठ बोलने,चोरी करने,कुशील सेवन करने और परिग्रहका संचय करनेसे इसी लोकमें विपत्तियाँ आती देखी जाती है और परलोकमें भी दुर्गति होती है ।। ३०२।। हिसा - (अब अहिंसा धर्मका वर्णन करते हैं-) प्रमादके योगसे प्राणियोंके प्राणोंका घात करना हिंसा और उनकी रक्षा करना अहिंसा हैं ।।३०३॥ जो जीव ४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रियाँ, निद्रा और मोहके वशीभूत हैं उसे प्रमादी कहते हैं ॥३०४॥ देवताके लिए, अतिथिके लिए,पितरोंके लिए, मंत्रकी सिद्धिके लिए, औषधिके लिए, अथवा भयसे सब प्राणियोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिए। इसे अहिंसाव्रत कहते हैं ॥३०५॥ घरके सब काम देख-भाल कर करना चाहिए। और पतली वस्तुओंको कपडेसे छानकर ही काममें लाना चाहिए। आसन, शय्या, मार्ग, अन्न और भी जो वस्तु हो, समयपर उसका उपयोग करते समय विना देखे उपयोग नहीं करना चाहिए ।। ३०६-३०७॥ भोजनके अन्तराय-ताजा चमडा, हड्डी, मांस, लोहू और पीब वगैरहका देखना, रजस्वला स्त्री,सूखा चमडा कुत्ता वगैरहसे छू जाना, भोजनके पदार्थो में यह मांसकी तरह है' इस प्रकारका बुरा संकल्प हो जाना, भोजनमें मक्खी वगैरहका गिर पडना, त्याग की हुई वस्तुको खा लेना, मारने, काटने, रोने, चिल्लाने आदिकी आवाज सुनना,ये सब भोजनमें विघ्न पैदा करनेवाले है। अर्थात् उक्त अवस्थाओंमें भोजन छोड देना चाहिए ।।३०८॥ ये अन्तराय व्रतरूपी बीजकी रक्षाके लिए बाडके समान हैं । इनके पालनेसे अतिप्रसङग दोष की निवृत्ति होती है और तपकी वृद्धि होती हैं ।।३०९॥ रात्रि-भोजन त्याग-अहिंसा व्रतकी रक्षाके लिए और मूलव्रतोंको विशुद्ध रखने के लिए इस लोक और परलोकमें दुःख देनेवाले रात्रि-भोजनका त्याग कर देना चाहिए ॥३१०॥ गृहस्थको चाहिए कि जो अपने आश्रित हों पहलो उनको भोजन कराये पीछे स्वयं भोजन करे ॥३११।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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