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________________ यशस्तिलकचम्पूगत - उपासकाध्ययन शुद्धं दुग्धं न गोर्मासं वस्तुवैचित्र्यमीदृशम् । विषघ्नं रत्नमाहेयं विषं च विपदे यतः ।। २८९ हेयं पलं पयः पेय: समे सत्यपि कारणे । विषद्रोगयुबे पत्रं मूलं तु मृतये मतम् ॥ २९० शरीरावयवत्वेऽपि मांसे दोषो न सर्पिषि जिव्हावन्न हि दोषाय पादे मद्यं द्विजातिषु ।। २९१ विधिश्चेत्कवलं शुद्धचै द्विजैः सर्वं निषेव्यताम् । शुद्धचै चेत्केवलं वस्तु भुज्यतां श्वपचालये ।। २९२ तद्द्रव्यदातृपात्राणां विशुद्धौ विधिशुद्धता । यत्संस्कारशतेनापि नाजातिद्विजतां व्रजेत् ।। २९३ तच्छाक्य सांख्यचार्वाकवेदवैद्यक पदनाम् । मतं विहाय हातव्यं मांसं श्रेयोऽथभिः सदा ।। २९४ यस्तु लौल्येन मांसाशी धर्मधीः स द्विपातकः । परदारक्रियाकारी मात्रा सत्रं यथा नरः ।। २९५ क्षुद्रमत्स्यः किलैकस्तु स्वयम्भूरमणोदधौ । महामत्स्यस्य कर्णस्थः स्मृतिदोषादधो गतः ।। २९५ उपकाराय सर्वस्य पर्जन्य इव धार्मिकः । तस्थानास्थानचिन्तेयं वृष्टिवन हितोक्तिषु ।। २९७ चण्डोsवन्तिषु मातङ्गः पिशितस्य निवृत्तितः । अत्यल्पकालभाविन्याः प्रपेदे यक्षमुख्यताम् ।। २९८ अथ के ते उत्तरगुणाः अणुव्रतानि पञ्चैव त्रिप्रकारं गुणव्रतम् । शिक्षाव्रतानि चत्वारि गुणाः स्युद्वंदिशोत्तरे ।। २९९ दोनों पेय होनेसे समान है । अतः जैसे वह पानी और पत्नीका उपभोग करता हैं वैसे ही शराब और माताका भी उपभोग क्यों नहीं करता ? ॥ २८८|| गौका दूध शुद्ध हैं किन्तु गोमांस शुद्ध नहीं है । वस्तु वैचित्र्य ही इस प्रकार हैं । देखो, साँपकी मणिसे विष दूर होता हैं, किन्तु साँपका विष मृत्युका कारण है ।। २८९ ।। अथवा, मांस और दुधका एक कारण होनेपर भी मांस छोडने योग्य हैं और दूध पीने योग्य हैं । जैसे कारस्कर नामके विषवृक्षका पत्ता आयुवर्धक होता हैं और उसकी जड मृत्युका कारण होती है ।। २९०।। और भी कहते हैं -मांस भी शरीरका हिस्सा है और घी भी शरीरका ही हिस्सा हैं फिर भी मांसमें दोष हैं, घीमें नहीं । जैसे ब्राह्मणोंमें जीभ में शराबका स्पर्श करनेमें दोष हैं पैर में लगानेपर नहीं ।। २९९ ।। यदि विधिसे ही वस्तु शुद्ध हो जाती तो ब्राह्मणों के लिए कोई वस्तु असेव्य रहती ही नहीं । और यदि केवल वस्तुकी शुद्धि ही अपेक्षित हैं तो चाण्डाल के घरपर भी भोजन कर लेना चाहिए ।। २९ ।। अतः द्रव्य, दाता और पात्र तीनोंके शुद्ध होनेपर ही शुद्ध विधि बनती है । क्योंकि सैकड़ों संस्कार करनेपर भी शूद्र ब्राह्मण नहीं हो सकता || २९३ ।। इसलिए जो अपना कल्याण चाहते हैं उन्हें बौद्ध, सांख्य, चार्वाक, वैदिक और शैवोंके मतोंकी परवाह न करके मांसका त्याग कर देना चाहिए ||२४|| जैसे जो परस्त्रीगामी पुरुष अपनी माताके साथ सम्भोग करता हैं वह दो पाप करता है, एक तो परस्त्री गमनका पाप करता है और दूसरे माताके साथ सम्भोग करनेका पाप करता है । वैसे ही जो मनुष्य धर्मबुद्धिसे लालसापूर्वक मांस भक्षण करता है वह भी डबल पाप करता है । एक तो वह मांस खाता ह दूसरे धर्म का ढोंग रचकर उसे खाता है ॥२९५ ।। "स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य के कान में रहनेवाला तन्दुलमत्स्य बुरे संकल्पसे नरक में गया ।। २९६ ॥ 'जैसे मेघ सबके उपकारके लिए है वैसे ही धार्मिक पुरुष भी सबके उपकारके लिए है । और जैसे स्थान और अस्थानका विचार किये बिना मेघ सर्वत्र बरसता है वैसे ही धार्मिक पुरुष भी हितकी बात कहने में स्थान और अस्थानका विचार नहीं करते ।। २९७ ॥ ' ' ' अवन्ति देशमें चण्ड नामका चाण्डाल बहुत थोडी देरके लिए मांसका त्याग कर देनेसे मरकर यक्षोंका प्रधान हुआ ।। २९८ ।। " ( अब श्रावकों के उत्तरगुण बतलाते है - ) पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार Jain Education International १५९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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