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________________ १५८ श्रावकाचार-संग्रह मांसादिषु दया नास्ति न सत्यं मद्यपायिषु । आनृशंल्म न मत्येष मधूदुम्बरसेविषु ॥ २७८ मक्षिकागर्भसंभूतबालाण्डकनिपीडनात् । जातं मधु कथं सन्तः सेवन्ते कललाकृति ॥ २७९ उद्भ्रान्तार्भकगर्भेऽस्मिन्नण्डजाण्डकखण्डवत् । कुतो मधु मधुच्छत्रे व्याधलुब्धकजीवितम् ।। २८. अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षन्यग्रोधादिफलेष्वपि । प्रत्यक्षा: प्राणिनः स्थूला: सूक्ष्माश्चागमगोचराः ॥२८१ मद्यादिस्वादिगेहेषु पानमन्नं च नाचरेत् । तदमत्राविसंपर्क न कुर्वीत कदाचन ।। २८२ कुर्वन्नतिभिः सार्धं संसर्ग भोजनादिषु । प्राप्नोति वाच्यतामत्र परत्र च न सत्फलम् ।। २८३ दृतिप्रायेषु पानीयं स्नेहं च कुतुपादिषु । व्रतस्थो वर्जयेन्नित्यं योषितश्चावतोचिताः ।। २८४ जीवयोगाविशेषेण मयमेषादिकायवत् मुद्गमाषादिकायोऽपि मांसमित्यपरे जगुः ।। २८५ तदयुक्तम् । तदाहमांसं जीवशरीरं जीवशरीरं भवेन्न वा मांसम् । यद्वनिम्बो वृक्षो वक्षस्तु भवेन्न वा निम्बः ।।२८६ द्विजाण्डजनिहन्तण। यथा पापं विशिष्यते । जीवयोगाविशेषेऽपि तया फलपलाशिनाम् ।। २८७ स्त्रीत्वपेयत्वसामान्याहारवारिवदोहताम् । एष वादी वदन्नेवं मद्यमातृसमागमे ।। २८८ जो मांस खाते हैं उनमें दया नहीं होती। जो शराब पीते हैं वे सच नहीं बोल सकते । और जो मधु और उदुम्बर फलोंका भक्षण करते हैं उनमें कोमलपन नहीं होता ॥२७८।। मधुमक्खियोंके अण्डोंके निचोडनेसे पैदा हुए मधुका, जो रज और वीर्यके मिश्रणके समान कलल-आकृतिवाला है, सज्जन पुरुष कैसे सेवन करते हैं? ॥२७९।। मधुका छत्ता व्याकुल शिशुके गर्भकी तरह है और अण्डेसे उत्पन्न होनेवाले जन्तुओंके समुदायवाला हैं। भील लोधी वगैरह हिंसक मनुष्य उसे खाते हैं । उसमें माधुर्य कहाँसे आया? ॥२८०॥ पीपल, उदुम्बर जिसे जन्तुफल भी कहते है, पाकर और वट वृक्ष आदिके फलोंमें स्थूल जन्तु रहते है जो प्रत्यक्ष दिखायी देते है । इनके सिवाय सूक्ष्म जन्तु भी उनमें पाये जाते हैं जो शास्त्रोंके द्वारा जाने जा सकते हैं ।।२८१।। मद्य मांस वगैरहका सेवन करनेवाले लोगोंके घरों में खान-पान भी नहीं करना चाहिए। तथा उनके बरतनोंको कभी भी काममें नहीं लाना चाहिए ॥२८२।। जो मनुष्य मद्य आदिका सेवन करनेवाले पुरुषों के साथ खान-पान करता हैं उसकी यहाँ निन्दा होती है और परलोकमें भी उसे अच्छे फलकी प्राप्ति नहीं होती ।।२८३।। व्रती पुरुषको चमडेकी मशकका पानी,चमडेके कुप्पोंमें रखा हुआ घी, तेल और मद्य, मांस आदिका सेवन करनेवाली स्त्रियोंको सदाके लिए छोड देना चाहिए ।।२८४॥ कुछ लोगोंका कहना हैं कि मूंग, उडद आदिमें और ऊँट, मेढा वगैरहमें कोई अन्तर नहीं हैं क्योंकि जैसे ऊँट, मेढा वगैरहके शरीरमें जीब रहता हैं वैसे ही मूंग उडद आदिमें भी जीव रहता है । दोनों ही जीवके शरीर हैं। अतः जीवका शरीर होनेसे मूंग, उडद वगैरह भी मांस ही है ।। २८५ ।। किन्तु उनका ऐसा कहना ठीक नहीं है । क्योंकि मांस जीवका शरीर हैं यह ठीक हैं। किन्तु जो जीवका शरीर हैं वह मांस होता भी है और नहीं भी होता । जैसे, नीम वृक्ष होता हैं किन्तु वृक्ष नीम होता भी हैं और नहीं भी होता। २८६।। तथा-जैसे ब्राह्मण और पक्षी दोनोंमें जीव हैं फिर भी पक्षीको मारने की अपेक्षा ब्राह्मणको मारने में अधिक पाप हैं। वैसे ही फल भी जीवका शरीर है और मांस भी जीवका शरीर है, किन्तु फल खानेवालेकी अपेक्षा मांस खानेवालेको अधिक पाप होता है ।।२८७॥ तथा जिसका यह कहना हैं कि फल और मांस दोनों ही जीवका शरीर होनेसे बराबर हैं उसके लिए पत्नी और माता दोनों स्त्री होनेसे समान हैं और-शराब तथा पानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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