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________________ २३२ श्रावकाचार - संग्रह पाषाणभूर जोवारिलेखाप्रख्यत्वभाग्भवन् । क्रोधो यथाक्रमं गत्यं श्वभ्रतिर्यनुना किनाम् ।। ८९५ शिलास्तम्मा स्थिसाध्मवेत्रवृत्तिद्वितीयकः । अधः पशुनरस्वर्गगतिसंगतिकारणम् ।। ८९६ वेणुमूलैरजाश्रृङ्गर्गोमूत्रंश्चामरैः समा । माया तथैव जायेत चतुर्गतिवितीर्णये ।। ८९७ क्रिमिनोलीय पुर्लेवहरिद्वारागसंन्निभः । लोभः कस्य न संजातस्तद्वत्संसारकारणम् ।। ८९८ कषायोंमेंसे प्रत्येकके शक्तिकी अपेक्षासे भी चार-चार भेद होते हैं । पत्थर की लकीरके समान क्रोध, पृथिवीकी लकीरके समान क्रोध, धूलिकी लकीरके समान क्रोध और जलकी लकीरके समान क्रोध । जैसे पत्थरकी लकीरका मिटना दुष्कर है वैसे ही जो क्रोध बहुत समय बीत जानेपर भी बना रहता हैं वह उत्कृष्ट शक्तिवाला होता है और ऐसा क्रोध जीवको नरक गति में ले जाता हैं । जैसे पृथ्वीको लकीर बहुत समय बाद मिटती है वैसे जो क्रोध बहुत समय बीत जानेपर मिटे वह अनुत्कृष्ट शक्तिवाला क्रोध हैं ऐसा क्रोध जीवको पशुगतिमें ले जाता है । जैसे धूल में की गयी लकीर कुछ समयके बाद मिटती है वैसे ही जो क्रोध कुछ समयके बाद मिट जायेवह अजघन्य शक्तिवाला क्रोध हैं । ऐसा क्रोध जीवको मनुष्य गतिमें उत्पन्न करता हैं । जैसे पानीमें की गयी लकीर तुरन्त ही मिट जाती हैं वैसे हो जो क्रोध तुरन्त ही शान्त हो जाये वह जघन्य शक्तिवाला क्रोध है । ऐसा क्रोध जीवको देवगति में उत्पन्न कराने में निमित्त होता हैं ||८९५|| मान कषाया के भी शक्तिकी अपेक्षा चार भेद है- पत्थर के स्तम्भके समान, हड्डी के समान, गोली लकडीके समान और बेत के समान । जैसे पत्थरका स्तम्भ कभी नमता नहीं है वैसे ही जो मान जीवको कभी विनयी नहीं होने देता वह उत्कृष्ट शक्तिवाला मान है, ऐसा मान जीवको नरकतिमें जानेकनिमित्त होता है । जैसे हड्डी बहुत काल बीते बिना नमनें योग्य नहीं होती वैसे ही जो बहुत काल बीते बिना जीवको विनयी नहीं होने देता वह अनुत्कृष्ट शक्तिवाला मान है । ऐसा मान जीवकी पशुगति में उत्पन्न होनेका निमित्त होता हैं । जैसे गीली लकडी थोडे कालमें ही नमने योग्य हो जाती है वैसे ही जो थोड़े समयमें ही शान्त हो जाता है वह अजघन्य शक्तिवाला मान हैं । ऐसा मान जीवको मनुष्यगतिमें उत्पन्न कराता है । जैसे वेत जल्दी ही नम जाता हैं वैसे ही जो जल्दी ही शान्त हो जाये वह जघन्य शक्तिवाला मान हैं ऐसा मान जीवको देवगति में उत्पन्न कराता हैं ।। ८९६ ।। इसी प्रकार बाँसकी जड़, बकरीके सींग, गोमूत्र और चामरोंके समान माया क्रमशः चारों गतियों में उत्पन्न करानेमें निमित्त होती है । अर्थात् जैसे बाँसकी जड़में बहुत-सी शाखाप्रशाखा होती हैं वैसे ही जिसमें इतने छल छिद्र हों कि उनका कोई हिसाब ही न हो, उसे उत्कृष्ट शक्तिवाली माया कहते है । जैसे बकरी के सींग टेढे होते हैं उस ढंगका टेढापन जिसके व्यवहार में हो वह अनुत्कृष्ट शक्तिवाली माया हैं । जैसे बैल कुछ मोडा देकर मूतता है उतना टेढापन जिसमें हो वह अजघन्य शक्तिवाली माया है और जैसे चामर ढोरते समय थोडा मोडा खा जाते है किन्तु तुरन्त ही सीधे हो जाते है वैसे ही जिसमें बहुत कम टेढापन हो जो जल्द ही निकल जाये वह जघन्य शक्तिवाली माया हैं। चारों प्रकारकी माया क्रमसे जीवको चारों गतिमें उत्पन्न कराने में कारण हैं ।। ८९७ ।। किरमिचके रंग, नीलके रंग, शरीरके मल और हल्दी के रंगके समान लोभ शेष कषायोंकी तरह किस जीवके संसार भ्रमणका कारण नहीं होता। जैसे किरमिचका रंग पक्का होता हैं वैसे ही जो खूब गहरा और पक्का हो वह तो उत्कृष्ट शक्तिवाला लोभ हैं । जैसे नीलका रंग किरमिचसे कम पक्का होता हैं मगर होता वह भी गहरा ही हैं वैसे ही जो कम पक्का और www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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