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________________ यशस्तिलकचम्पूगत - उपासकाध्ययन 1 अन्तर्बहिर्मलप्लोषाबात्मनः शुद्धिकारणम् । शारीरं मानसं कर्म तपः प्राहुस्तपोधनाः ।। ८९१ कषायेन्द्रियदण्डानां विजयो व्रतपालनम् । संयमः संयतः प्रोक्तः श्रेयः श्रयितुमिच्छताम् ।। ८९२ अस्यायमर्थः कषन्ति संतापयन्ति दुर्गतिसंग संपादनेनात्मानमिति कषायाः क्रोधादय । अथव। यथा विशुद्धस्य वस्तुनो नैयग्रोधादयः कषाया कालुष्यकारिणः, तथा निर्मलस्यात्मनो मलिनत्व हेतुत्वात्कषया इव कषायाः । तत्र स्वपरापराधाभ्यामात्मेतरयोरपायोऽपायानुष्ठानमशुभपरिणामजननं वा क्रोधः, विद्याविज्ञानंश्वर्यादिभिः पूज्यपूजाव्यतिक्रमहेतुरहंकारो युक्तिदर्शनेऽपि दुराग्रहापरित्यागो वामान: । मनोवाक्काय क्रियाणामयाथातथ्यात्परवञ्चनाभिप्रायेण प्रवृत्तिः ख्यातिपूजालाभाद्यभिनिवेशेन वा माया । चेतनाचेतनेषु वस्तुषु चित्तस्य महान्ममेदं भावस्तदभिवृद्धि विनाशयोर्महान्स - न्तोषोऽसन्तोषो वा लोभः । सम्यक्त्वं धनन्त्यनन्तानुबन्धिनस्ते कषायकाः || अप्रत्याख्यानरूपाश्च देशव्रतविघातिनः ।। ८९३ प्रत्याख्यानस्वभावाः स्युः सयमस्य विनाशकाः । चारित्रे तु यथाख्याते कुर्युः संज्वलनाः क्षतिम् ॥ ८९४ कष्ट उठाया जाता हैं उसे तप कहते है । किन्तु वह तप जैनमागके अविरुद्ध यानी अनुकूल होनेसे ही लाभदायक हो सकता है । अथवा अन्तरङग और बाह्य मलके संतापसे आत्माको शुद्ध करने के लिए जो शारीरिक और मानसिक कर्म किये जाते है उसे तपस्वीजन तप कहते हैं ।। ८९०-८९१।। आत्माका वल्याण चाहनेवालोंके द्वारा जो कषायों का निग्रह, इन्द्रियोंका जय, मन, वचन और काय की प्रवृत्तिका त्याग तथा व्रतोंका पालन किया जाता हैं उसे संयमी पुरुष संयम कहते हैं । ८९२।। इसका खुलासा इस प्रकार हैं- जो आत्माको दुर्गतियों में ले जाकर कष्ट दें उन्हें कषाय करते हैं। अथवा जैसे वटवृक्ष वगैरहका कसैला रस साफ वस्तुको भी काला कर देता है वैसे ही जो निर्मल आत्माको मलिन करनेमें कारण हो उसे कसैले रसके समान होने से कषाय कहते हैं । वे काय चार है- क्रोध, मान, माया और लोभ । अपनी या दूसरोंकी गलतीसे अपना या दूसरोंका २३१ नष्ट होना या अनिष्ट करना अथवा बुरे भावोंका उत्पन्न होना क्रोध हैं। विद्या, ज्ञान या ऐश्वर्य वगैरह के घमंड में आकर पूज्य पुरुषोंका आदर-सत्कार नहीं करना अथवा युक्ति देनेपर भी अपने दुराग्रहको नहीं छोडना मान है। दूसरोंको ठगने के अभिप्राय से अथवा ख्याति, आदर-सत्कार या धनलाभ आदि के अभिप्रायसे मन, वचन और कायकी मिथ्याप्रवृत्ति करना अर्थात् सोचना कुछ. कहना कुछ और करना कुछ इसे माया कहते है । चेतन स्त्री- पुत्रादिकमें और अचेतन जमीन-जायदाद आदि में 'यह मेरे है इस प्रकारकी जो अत्यन्त आसक्ति होती है अथवा इन वस्तुओं की वृद्धि होनेपर जो महान् संतोष या इनकी हानि होनेपर जो महान् असन्तोष होता है वह लोभ हैं । इस प्रकार ये चार कषाय हैं । इन चारोंमें से प्रत्येककी चार-चार अवस्थाएँ होती हैं- अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । इनमें से जो कषाय सम्यग्दर्शनको घातती हैं अर्थात् सम्यग्दर्शनको नहीं होने देतीं उन्हें अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं | जो कषाय सम्यग्दर्शनको तो नहीं घातती किन्तु देशव्रतको घातती है उन्हें अप्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं ।। ८९३ । जो कषाय न तो सम्यग्दर्शनको रोकती है और न देशचारित्रको रोकती हैं किन्तु संयमको रोकती है, उन्हें प्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं । और जो कषाय केवल यथाख्यात चारित्रको नहीं होने देतीं उन्हें संज्वलनकषाय कहते है ।। ८९४ ॥ चारों क्रोध आदि 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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