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________________ २३० श्रावकाचार-संग्रह आचार्योपासनं श्रद्धा शास्त्रार्थस्य विवेचनम् । तत्क्रियाणामनुष्ठानं श्रेयः प्राप्तिकरो गणः ।। ८८१ शुचिविनयसंपन्नस्तनूचापलवर्जितः । अष्टदोषविनिर्मुक्तमधीतां गुरुसंनिधौ ॥ ८८२ अनुयोगगुणस्थानमार्गणास्थानकर्मसु । अध्यात्मतत्त्वविद्यायाः पाठः स्वाध्याय उच्यते ।। ८८३ गृही यतः स्वसिद्धान्तं साधु बुध्येत धर्मधीः । प्रथमः सोऽनुयोगः स्यात्पुराणचरिताश्रयः ।। ८८४ अधोमध्योर्ध्वलोकेषु चतुर्गतिविचारणम् । शास्त्रं करणमित्याहुरनुयोगपरीक्षम् ॥ ८८५ ममेदं स्यादनुष्ठानं तस्यायं रक्षणक्रमः । इत्थमात्मचरित्रायो ऽनुयोगश्चरणाश्रितः ।। ८८६ जीवाजीवपरिज्ञानं धर्माधर्मावबोधनम् । बन्धमोक्षज्ञता चेति फलं द्रव्यानुयोगतः ।। ८८७ जीवस्थान गुणस्थानमार्गणास्थानगो विधिः । चतुर्दशविधो बोध्यः स प्रत्येकं यथागमम् ८८८ आदितः पञ्च तिर्यक्षु चत्वारि श्वभ्रिनाकिनोः । गुणस्थानानि मन्यन्ते नृषु चैव चतुर्दश ।। ८८९ अनहितवीर्यस्य कायक्लेशस्तपः स्मृतम् । तच्च मार्गाविरोधेन गुणाय गदितं जिनैः ॥ ८९० 1 फिर पूजन, फिर भगवान् के गुणों का स्तवन, फिर पञ्च नमस्कार मन्त्र वगैरह का जाप, फिर ध्यान और अन्त में जिनवाणीका स्तवन । इसी क्रमसे जिनेन्द्र देवकी आराधना करनी चाहिए ॥ ८८० ॥ आचार्यकी उपासना, देवशास्त्र गुरुकी श्रद्धा, शास्त्र के अर्थका विवेचन, उसमें बतलायी गयी क्रियाओंका आचरण ये सब कल्याणका प्राप्ति करनेवाले है || ८८१ ।। अपने कल्याणके इच्छुक शिष्यसमुदायको पवित्र होकर तथा शारीरिक चपलताको छोड़कर विनयपूर्वक गुरुके समीपमें आठ दोषोंसे रहित अध्ययन करना चाहिए ||८८२ ॥ भावार्थ - आचार्य परमेष्ठी या आध्याय परमेष्ठी गुरु कहलाते है । उनसे विनयपूर्वक अध्ययन, शास्त्रचर्चा, उनकी आज्ञा का पालन आदि करना चाहिए । ज्ञानाराधनाके आठ दोष होते है- स्वाध्यायके समयका ध्यान न रखना पहला दोष है । शुद्ध उच्चारण न करना, अक्षरादिको छोड़ जाना दूसरा दोष है । शास्त्रका अर्थ ठीक न करना तीसरा दोष है । न उच्चारण ठीक करना और न अर्थ ठीक करना चौथा दोष है । जिनसे पढ़ा है या विचारा है उनका नाम छिपाना पाँचवाँ दोष है । जो पढा है उसको अवधारण न करना छठा दोष है । विनयपूर्वक अध्ययन न करना सातवाँ दोष हैं और गुरुका आदर न करना आठवाँ दोष हैं । इन आठ दोषोंको टालकर गुरुसे अध्ययन करना चाहिए। चारों अनुयोगोंके शास्त्र तथा गुणस्थान और मार्गणास्थानका और अध्यात्म तत्त्वरूप विद्याका पढना स्वाध्याय है ।। ८८३ || धर्मात्मा गृहस्थ जिससे अपने सिद्धान्तों को अच्छी तरह समझ सकता हैं वह प्रथमानुयोग है । उसमें त्रेसठ शलाकापुरुषोंका वृत्तान्त या प्रसिद्ध पुरुषोंका चरित्र पाया जाता है ||८८४ | | अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक में चारों गतियोंका विचार जिसमें किया गया हो उसको करणानुयोग कहते हैं । यह करणानुयोग अन्य अनुयोगोंकी परीक्षा करनेकी कसौटी है । अर्थात् इसीपरसे अन्य सबके प्रामाण्य की परीक्षा की जाती हैं । ८८५ ।। यह मेरा अनुष्ठान - कर्तव्यकर्म हैं और उसके पालनका यह क्रम हैं । इस प्रकार आत्माके चरित्रका वर्णन जिसमें किया गया हो उसे चरणानुयोग कहते हैं ।। ८८६।। द्रव्यानुयोग से जीव और अजीव द्रव्यका ज्ञान होता हैं, धर्म और अधर्म द्रव्यका ज्ञान होता है तथा बन्ध और मोक्षका ज्ञान होता हैं । ८८७॥ जीवसमास, गुणस्थान और मार्गणा प्रत्येक चौदहचौदह प्रकार के होते है । इनका स्वरूप आगमोंसे जानना चाहिए । तिर्यञ्चों में पहले केपाँच गुणस्थान होते है । देव और नारकियोंमें पहले के चार गुणस्थान होते है और मनुष्यों में चौदहों गुणस्थान होते है ।।८८८-८८९ ।। अपनी शक्तिको न छिपाकर जो कायक्लेश किया जाता हैं, शारीरिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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