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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन २२९ जीवितमरणाशंसे सुहृदनुरागः सुखानुबन्धविधिः । एते सनिदाना स्युःसल्लेखनहानये पञ्च ॥८७१ आराध्यरत्नत्रयमित्थमर्थी समपितात्मा गणिने यथावत् ।। समाधिभावेन कृतात्मकार्यः कृती जगन्मान्यपदप्रभुः स्यात् ।। ८७२ विप्रकीर्णार्थवाक्यानामुक्तिरुक्तं प्रकीर्णकम् । उक्तानुक्तामृतस्यन्दबिन्दुस्वादनकोविदः ।। ८७३ अदुर्जनत्वं विनयो विवेकः परीक्षणं तत्त्वविनिश्चयश्च । एते गुणाः पञ्च भवन्ति यस्य स आत्मवान्धर्मकथापर: स्यात् ।। ८७४ असूयकत्वं शठताऽविचारो दुराग्रहः सूक्तविमानना च । पुंसाममी पञ्च भवन्ति दोषास्तत्त्वावबोधप्रतिबन्धनाय ।। ८७५ पुंसों यथा संशयिताशयस्य दृष्टा न काचित्सफला प्रवृत्तिः । धर्मस्वरूपेऽपि विमूढबुद्धस्तथा न काचित्सफला प्रवृत्तिः ॥ ८७६ जातिपूजाकुलज्ञानरूपसपत्तपोबले । उशन्त्यहंयुतोद्रेक मदमस्मयमानसा: । ८७७ यो मदात्समयस्थानाममवमानेंन मोदते । स नूनं धर्महा यस्मान्न धर्मो धार्मिकैविना ।। ८७८ देवसेवा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने॥८७९ स्नपनं पूजनं स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतस्तवः । षोढा क्रियोदिता सद्भिर्देवसेवासु गेहिनाम् ।। ८८० मन ध्यानमें लगा रहे तो फिर कुछ भी असाध्य नहीं है ।।८७०।।। समाधिमरणके अतीचार : जीनेकी इच्छा करना,मरनेकी इच्छा करना,मित्रोंको याद करना, पहले भोगे हुए भोगोंका स्मरण करना और आगामी भोगोंकी इच्छा करना,ये पाँच बातें समाधिमरणव्रतमें दोष लगानेवाली है ।।८७१।। इस प्रकार आचार्यके ऊपर विधिवत् अपना भार सौंपकर तथा रत्नत्रयकी आराधना करके जो समाधिमरग करता है वह संसार में पूजनीय पदका स्वामी होता है ।।८७२।। अब कुछ प्रकीर्णक बातें बतलाते है। उक्त-जिन्हें कह चुके और अनुक्त,जिन्हें नहीं कहा, उन सब विषयरूपी अमतसे टपकनेवाली बूंदोंका स्वाद लेने में चतुर पण्डितजनोंने फुटकर बातोंका कथन करनेको प्रकीर्णक कहा है ।।८७३।। सज्जनता,विनय, समझदारी, हिताहितकी परीक्षा और तत्त्वोंका निश्चय जिसमें ये पाँच गुण होते है वही विशिष्ट आत्मा,धर्म कथा,धार्मिक चर्चा या धर्मोपदेशका अधिकारी है ।।८७४।। किसीके गुणोंमें दोष लगाना, ठगना, विचारहीनता, हठीपना और अच्छी बातका निरादर करना, मनुष्योंके ये पाँच दोष तत्त्वको समझने में रुकावट डालते है । अर्थात् जिसमें ये दोष होते हैं वह तत्त्वको समझनेका प्रयत्न नहीं करता और अपनी ही हांके जाता है ।।८७५॥ जैसे प्रत्येक बातको सन्देहकी दृष्टि से देखनेवाला संशयाल मनुष्य किसी भी काममें सफल होता नहीं देखा जाता, वैसे ही जो मनुष्य धर्मके स्वरूपके विषयमें भी मूढबुद्धि है उसकी कोई प्रवृत्ति सफल नहीं होती ।।८७६॥ गर्वसे रहित गणधरादिक देव,जाति,प्रतिष्ठा,कुल, ज्ञान रूप, सम्पत्ति,तप और बलका सहारा लेकर अहंकार करने को मद या घमंड कहते हैं। अर्थात लोकमें इन आठ वातोंको लेकर लोग घमंड करते देखे जाते है ॥८७७।। जो मनुष्य घमण्डमें आकर अपने साधर्मी भाइयोंका अपमान करके प्रसन्न होता है वह निश्चयसे धर्मघातक हैं; क्योंकि धार्मिकोंके बिना धर्म नहीं हैं ॥८७८।। देवपूजा, गुरुकी सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये गृहस्थोंके छह दैनिक कर्म हैं। प्रत्येक गृहस्थको प्रतिदिन ये छह काम अवश्य करने चाहिए ॥८७९।। सुज्ञ जनोंने गृहस्थोंके लिए देवपूजाके विषयमें छह क्रियाएँ बतलायो हैं-पहले अभिषेक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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