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________________ २२८ श्रावकाचार-संग्रह सविधायापकृतिरिव जनिताखिलकायकम्पनाता। यमदूतीव जरा यदि समागता जीवितेषु कस्तषः ।। ८६२ कर्णान्तकेशपाशग्रहणविधेोधितोऽपि यदि जरया। स्वस्य हितैषी न भवति तं कि मृत्युनं संग्रसते ।। ८६३ उपवासादिभिरङ्गे कषायदोषे च बोधिभावनया । कृतसल्लेखनकर्मा प्रायाय यतेत गणमध्ये ।। ८६४ यमनियमस्वाध्यायास्तपांसि देवार्चनाविधिनम् । एतत्सर्व निष्फलमवसाने चेन्मनो मलिनम्।।८६५ द्वादशवर्षाणि नपः शिक्षितशस्त्रो रणेषु यदि मुह्येत् । कि स्यात्तस्यास्त्रविधेर्यथा तथान्ते यतेः पुराचरितम् ।। ८६६ स्नेहं विहाय बन्धुषु मोहं विभवेषु कलुषतामहिते। गणिनि च निवेद्य निखिलं दुरीहितं तदनु भजतु विधिमुचितम् ।। ८६७ अशनं क्रमेण हेयं स्निग्धं पानं ततः खरं चैव।। तदनु च सर्वनिवृत्ति कुर्याद्गुरुपञ्चकस्मृतौ निरतः ॥ ८६८ कदलीघातवदायुः कृतिनां सकृदेव विरतिमुपयाति। तत्र पुनर्नैष विधिर्यदेवे क्रमविधिर्नास्ति ।। ८६९ सूरी प्रवचनकुशले साधुजने यत्नकर्मणि प्रवणे। चित्ते च समाधिरते किमिहासाध्यं यतेरस्ति ।।८७० की शक्ति प्रतिदिन घटने लगे, खाना-पीना छूट जाये और कोई उपाय कारगर न हो स्वयं शरीर ही मनुष्योंको यह बतला देता है कि अब समाधिमरण करनेका समय आ गया है।। ८६१॥ जब सन्निकटवर्ती अपकारकी तरह समस्त शरीरमें कँपकँपी पैदा करने वाला बढापा यमके दूतकी तरह आकर खडा हो गया तो फिर जीनेको क्या लालसा?।।८६२।। बुढापेके द्वारा कानके समीपके बालोंको पकडकर समझाये जानेपर भी अर्थात् बुढापेके चिन्हस्वरूप कानके पासके बालोके सफेद हो जानेंपर भी जो अपने हितमें नहीं लगता है क्या उसे मौत नहीं खाती? ॥८६३॥ जो समाधिमरण करना चाहता है, उसे उपवास आदि के द्वारा शरीरको और ज्ञानभावनाके द्वारा कषायोंको कृश करके किसी मुनिसंघमें चला जाना चाहिए ।८६४।। यदि मरते समय मन मैला रहा तो जीवन-भरका यम, नियम,स्वाध्याय, तप, देवपूजा और दान निष्फल है ।।८६५।। जैसे एक राजाने वारह वर्ष तक शस्त्र चलाना सीखा। किन्तु जब युद्धका अवसर आया तो वह शस्त्र नहीं चला सका । उस राजाकी शस्त्रशिक्षा किस कामकी, वैसे ही जो व्रती जीवनभर धर्माचरण करता रहा, किन्तु जब अन्त समय आया तो मोहमें पड गया । उस व्रतीका पूर्वाचरण किस कामका ।।८६६।। कुटुम्बियोंसे स्नेह, सम्पत्तिसे मोह और जिन्होंने अपना बुरा किया हैं उनके प्रति कलषपनेको छोडकर आचार्यसे अपने सब अपराधोंको कहदे,और उसके बाद समाधिमरणके योग्य विधिका पालन करे ।।८६७।। धीरे-धीरे भोजनको छोड दे और दूध, मठा वगैरह रख ले। फिर उन्हें भी छोडकर गर्म जल रख ले। उसके बाद पञ्च नमस्कार मन्त्रके स्मरण में लीन होकर सब कुछ छोड दे ।।८६८।। यदि किसी पुण्यशाली पुरुषकी आयु कटे हुए केले की तरह एक साथ ही समाप्त होती हो तो वहाँ समाधिमरणको यह विधि नहीं,है क्योंकि दैववश अचानक मरण उपस्थित होनेपर क्रमिक विधि नहीं बन सकती ।।८६९॥ यदि समाधिमरण करानेवाले आचार्य आगममें कुशल हों और साधुसंघ प्रयत्न करने में कुशल हो तथा समाधिमरण करनेवालेका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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