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________________ यशस्तिलचकम्पूगत-उपासकाध्ययन २२७ स शैवो यः शिवज्ञात्मा स बौद्धो योऽन्तरात्मभूत् । स सांख्यो यः प्रसंख्यावान्स द्विजो यो न जन्मवान् ।। ८५६ ज्ञानहीनो दुराचारो निर्दयो लोलुपाशय: दानयोग्यः कथं स स्याद्यश्चाक्षानुमतक्रियः ॥ ८५७ अनुमान्या समद्देश्या त्रिशुद्धा भ्रामरी तथा । भिक्षा चतुर्विधा ज्ञेया यतिद्वयसमाश्रया ।। ८५८ तरुदलमिव परिपक्वं स्नेहविहीनं प्रशीपमिव देहम् । स्वयमेव विनाशोन्मुखमवबुध्य करोतु विधिमन्त्यम् ।। ८५९ गहनं न शरीरस्य हि विसर्जन किं तु गहनमिह वृत्तम् । तन्न स्थास्नु विनाश्यं न नश्वरं शोच्यमिदमाहुः ।। ८६० प्रतिदिवसं विजहद्वलमुज्झद्भुक्ति त्यजत्प्रतीकारम् । वपुरेव नणां निगिरति चरमचरित्रोदयं समयम् ।। ८६१ शद्ध भी हो किन्तु यदि उसमें बीज न डाला गया हो तो अनाज पैदा नहीं हो सकत ब्रामण जाति शुद्ध भी हो किन्तु उसमें यदि समीचीन धर्मके पालनकी परिपाटी न हो तो वह शुद्ध जाति भी व्यर्थ है ।।८५५।। जो शिव अर्थात् अपने कल्याणरूप मुक्तिको जानता हैं वही सच्चा शैव-शिवका अनुयायी हैं। जो अपनी अन्तरामाका पोषक है वही वास्तव में बौद्ध हैं। जो आत्मध्यानी हैं वही सांख्य है और जिसे फिर संसारमें जन्म नहीं लेना हैं वही द्विज अर्थात् ब्राह्यण है ।।८५६॥ जो अज्ञानी है, दुराचारी हैं, निर्दय है, विषयोंका लोलुपी है तथा इन्द्रियोंका दास है वह दानका पात्र कैसे हो सकता है? अर्थात् ऐसे आदमीको कभी भी दान नहीं देना चाहिए ।८५७।। देशविरत और सर्ववितरको अपेक्षासे भिक्षा चार प्रकारकी होती हैं-अनुमान्या, अनुद्देश्या, विशुद्धा और भ्रामरी ।।८५८।। भावार्थ-मुनिसम्बन्धी भिक्षाके लिए तो भ्रामरी शब्द शास्त्रोंमें अति प्रसिद्ध है। टिप्पणकारने अनुमान्या भिक्षाको दस प्रतिमापर्यन्त बतलाया है और आमन्त्रणपूर्वक भोजनको समुद्देश्य बतलाते हुए छठी प्रतिमापर्यन्त बतलाया है । छठी प्रतिमापर्यन्त गृही संज्ञा है। छठी के पश्चात नवीं प्रतिमापर्यन्त ब्रह्मचारी संज्ञा हैं और भिक्षक संज्ञा केवल अन्तिम दो प्रतिमाधारियोंकी है। दसवीं प्रतिमाका धारी घर छोडकर बाहर रहने लगता हैं और आमन्त्रणदाताके घर भोजन करता है। अतः वह उद्दिष्ट भोजन करता हैं क्योंकि दाता उसके उद्देश्यसे भोजन तैयार करता है। इसलिए उसकी भिक्षा समुद्देश्या होनी चाहिए । वह अनुमति-त्यागी होता है अतः भोजनके विषयमें किसी प्रकारकी अनुमति नहीं दे सकता। किन्तु नौवीं प्रतिमा तकके धारी भोजनके विषय में अनुमति दे सकते है अतः उनकी भिक्षा अनुमान्या होनी चाहिए। ग्रन्थकारने भिक्षाके भदोंका जो क्रम रखा है उससे भी यही ध्वनित होता हैं कि प्रारम्भिक प्रतिमावाले अनुमान्या भिक्षा करते है, दसवीं प्रतिमावाले समुद्देश्या और अन्तिम प्रतिमावाले त्रिशुद्धा भिक्षा करते है, तथा साधु भ्रामरीभिक्षा करते हैं। (अब सम धिमरणकी विधि बतलाते है-) वृक्षके पके हुए पत्तेकी तरह या तेलरहित दीपककी तरह शरीरको स्वयं ही विनाशोन्मुख जानकर अन्तिम विधि (समाधिमरण) करना चाहिए ।८५९॥ किन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि शरीरको त्याग देना कठिन नहीं है किन्तु उसमें संयमका धारण करना कठिन है। अत: यदि शरीर ठहराने योग्य हो तो उसे नष्ट नहीं कर डालना चाहिए और यदि वह नष्ट होता हो तो उसका रंज नहीं करना चाहिए ।।८६०।। (यह कहा जा सकता है कि यह हमें कैसे मालूम हो कि समाधिमरणका समय आ गया है? इसका उत्तर ग्रन्थकार स्वयं देते है-) अब शरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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