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________________ २२६ श्रावकाचार-संग्रह अबोहः सर्वसत्त्वेषु यज्ञो यस्य दिने दिने । स पुमान्दीक्षितात्मा स्यान्न त्वजादियमाशयः ॥ ८४७ दुष्कर्मदुर्जनास्पर्शी सर्वसत्वहिताशयः । स श्रोत्रियो भवेत्सत्यं न तु यो बाह्यशौचवान् ।। ८४८ अध्यात्माग्नी दयामन्त्रः सम्यक्कर्मसमिच्चयम् । यो जुहोति स होता स्यान्न बाह्याग्निसमेधकः।।८४९ भावपुष्पर्यजेद्देवं व्रतपुष्पैर्वपुर्गृहम् । क्षमापुष्पैर्मनोन्हि यः स यष्टा सतां मतः ॥ ८५० षोडशानामुदारात्मा यः प्रभुर्भावनत्विजाम् । सोऽध्वर्युरिह बोद्धव्यः शिवशर्माध्वरोऽदुरः ।। ८५१ विवेक वेदयेदुच्चर्य शरीरशरीरिणोः । स प्रीत्यै विदुषां वेदो नाखिलक्षयकारणम् ॥ ८५२ जातिर्जरा मृतिः पुंसां त्रयी संसृतिकारणम् । एषा त्रयी यतस्त्रय्याः क्षीयते सा त्रयी मता ।। ८५३ अहिंसः सद्वतो ज्ञानी निरीहो निष्परिग्रहः । यः स्यात्स ब्राह्मणः सत्यं न तु जातिमदान्धलः । ८५४ सा जाति: परलौकाय यस्याः सद्धर्मसंभवः । न हि सस्याय जायेत शुद्धा भूर्बीजजिता॥ ८५५ के लिए आनेवाले साधु अतिथि कहे जाते है । अतिथि शब्दका एक अर्थ यह भी होता है कि जिसके आनेकी कोई तिथि (मिति) निश्चित ही है वह अतिथि है। साधु आहारके लिए किस दिन आ जायेंगे यह पहलेसे निश्चय तो होता नहीं, तथा साधुओंके अष्टमी आदिका विचार भी नहीं होता। अतः वे अतिथि कहलाते है । ग्रन्थकार कहते हैं कि अतिथि शब्दका यह अर्थ तो लौकिक हैं। वास्तवमें तो पाँचों इन्द्रियाँ ही द्वितीया, पंचमी, एकादशी और चतुर्दशी रूपी पाँच तिथियाँ है और जो उनसे मुक्त हो गया, जिसने पाचों इन्द्रियोंको अपने वशमें कर लिया वही वास्तवमें अतिथि हैं। जो प्रतिदिन समस्त प्राणियोंमें मैत्रीरूपी यज्ञका आचरण करता हैं वह मनुष्य दीक्षित कहलाता हैं । जो बकरे आदिका बलिदान करता है वह दीक्षित नहीं हैं ।। ८४७॥ जो वुरे कामोंको नहीं करता और न बुरे मनुष्योंकी संगति ही करता है तथा सब प्राणियोंका हित चाहता हैं वह वास्तवमें श्रोत्रिय है. जो केवल बाह्य शद्धि पालता हैं वह श्रोत्रिय नहीं है ||८४८. जो आत्मारूपी अग्निमें दयारूपी मन्त्रोंके द्वारा कर्मरूपी काष्ठ-समहूसे हवन करता है वह होता हैं ; जो बाह्य अग्निमें हवन करता हैं वह होता नहीं है ।।८४९।। जो भावरूपी पुष्पोंसे मनरूपी अग्निकी पूजा करता है उसे सज्जन पुरुष यष्टा अर्थात् यज्ञ करनेवाला कहते हैं । जो महात्मा सोलह कारण भावनारूपी यज्ञ करनेवाले ऋत्विजोंका स्वामी है, मोक्ष-सुखरूपी यज्ञके उद्धारक उस पुरुषको अध्वर्यु जानना चाहिए ।।८५०-८५१।। जो आत्मा और शरीरके भेदको जोरदार शब्दोंमें बतलाता है वही सच्चा वेद है और विद्वान् लोग उससे ही प्रेम करते हैं। किन्तु जो सब पशुओंके विनाशका कारण हैं वह वेद नहीं हें ॥८५२।। जन्म, बुढापा और मृत्यु ये तीनों संसारके कारण है। इस त्रयी अर्थात् तीनोंका जिस त्रयीसे नाश हो वही त्रयी हैं । आशय यह है कि ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदको त्रयी कहते है । किन्तु ग्रन्थकारका कहना है जो संसारके कारण जीवन मृत्य और बढापेको कष्ट कर दे, जिससे संसार में न जन्म लेना पडे और न मृत्युका दुःख उठाना पडे वही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही सच्ची त्रयी है ।।८५३।। जो अहिंसक है, समीचीन व्रतोंका पालन करता हैं, ज्ञानी हैं, सांसारिक चाहसे दूर हैं और काम, क्रोध, मोह आदि तथा जमीन-जायदाद, धन आदि अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहसे रहित हैं वही सच्चा ब्राह्मण हैं। जो जातिके मदसे अन्धा है, अपनेको सबसे ऊँचा और दूसरोंको नीच समझता है वह ब्राह्मण नहीं है ।।८५४॥ वही जाति परलोकके लिए उपयोगी हैं जिससे सच्चे धर्मका जन्म होता हैं, जमीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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