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________________ यशस्तिलचकम्पूगत-उपासकाध्ययन २२५ योऽक्षरतेनेष्वविश्वस्तः शाश्वते पथि निष्ठितः । समस्तसत्त्वविश्वास्यः सोऽनाश्वानिह गीयते ॥४३७ तत्त्वे पुमान्मनः पुंसि मनस्यक्षकदम्बकम् । यस्य युक्तं स योगी स्यान्न परेच्छादुरीहितः ।। ८३८ कामः क्रोधो मदो माया लोभश्चेत्यग्निपञ्चकम् । येनेदं साधितं स स्यात्कृती पञ्चाग्निसाधकः।। ८३९ मानं ब्रह्म क्या ब्रह्म ब्रह्म कामविनिग्रहः । सम्यगत्र वसन्नात्मा ब्रह्मचारी भवेन्नरः ।। ८४० क्षान्तियोषिति यः सक्तः सम्यग्ज्ञानातिथिप्रियः । स गृहस्थो भवेन्नूनं मनोदैवतसाधकः ।। ८४१ ग्राम्यमर्थ बहिश्चान्तर्यः परित्यज्य संयमी । वानप्रस्थः स विज्ञेयो न वनस्थः कुटुम्बवान् :। ८४२ संसाराग्निशिखाच्छेदो येन ज्ञानासिना कृतः । तं शिखाच्छेदिनं प्राहुन तु मण्डितमस्तकम् ॥ ८४३ कर्मात्मनो विवेक्ता य: क्षीरनीरसमानयोः । भवेत्परमहंसोऽसौ नाग्निवत्सर्वभक्षकः ।। ८४४ ज्ञानर्मनो वपुर्वनियमरिन्द्रियाणि च । नित्यं यस्य प्रदीप्तानि स तपस्वी न वेषवान् ॥ ८४५ पञ्चेन्द्रियप्रवत्त्याख्यास्तिथयः पञ्च कीतिताः । संसाराश्रयहेतुत्वाताभिर्मवतोऽतिथिर्भवेत् ॥८४६ स्थायी मार्गपर दृढ रहता हैं और प्राणी जिसका विश्वास करते है अर्थात् जो किसीको भी कष्ट नहीं पहुँचाता उसे अनाश्वान् कहते है। अर्थात् वैदिक धर्म में जो भोजन न करे वह अनाश्वान् कहा जाता हैं। किन्तु ग्रन्थ कार कहते हैं कि जिसमें उक्त बातें हों उसीको अनाश्बान् कहना चाहिए॥८३७॥ जिसका आत्मा तत्त्वमे लीन है, मन आत्मामें और आत्मा तत्त्वमें लीन हैं वह योगी है। जो दूसरी वस्तुओंकी इच्छावाले दुष्ट संकल्पसे युक्त हैं वह योगी नहीं है ।।८३८।। काम, क्रोध, मद, माया और लोभ ये पाँच अग्नियाँ है । जो इन पाँचों अग्नियोंको अपने वशमें कर लेता हैं उसे पञ्चाग्निका साधक कहते हैं अर्थात् वैदिक साहित्य में पाँच अग्नियोंकी उपासना करनेवालेको पञ्चाग्निसाधक कहते है। किन्तु ग्रन्थकारका कहना है कि सच्ची अग्नि तो काम क्रोधादिक हैं जो रात-दिन आत्माको जलाती है । उन्हींका साधक पञ्चाग्निका साधक है। बाह्य अग्नियोंकी उपासनावाला नहीं ।।८३९ । ज्ञानको ब्रह्म कहते है । दयाको ब्रह्म कहते हैं । कामको वशमें करनेको ब्रह्म कहते हैं । जो आत्मा अच्छी रीतिसे ज्ञानकी आराधना करता हैं या दयाका पालन करता हैं अथवा कामको जीत लेता हैं वही ब्रह्मचारी है ।।८४०।। जो क्षमारूपी स्त्रीम आसक्त है, सम्यग्ज्ञानरूपी अतिथिका प्यारा है और मनरूपी देवताकी साधना करता है वही सच्चा गृहस्थ है । अर्थात् जो क्षमाशील है, ज्ञानी है और मनोजयी है वही वास्तव में गृहस्थ हैं।। ८४१।। जो अन्दरसे और बाहरमें अश्लील बातोंको छोडकर संयम धारण करता हैं उसे वानप्रस्थ जानना • चाहिए। जो कुटुम्बको लेकर जंगल में जा बसता है वह वानप्रस्थ नहीं है ॥८४२'। जिसने ज्ञानरूपी तलवारके द्वारा संसाररूपी अग्निकी शिखा यांनी लपटोंको काट डाला उसे शिखाछेदी कहने है, सिर घुटानेवालेको नहीं ॥८४३॥ संसार अवस्थामें कर्म और आत्मा दूध और पानीकी तरह मिले हुए हैं । जो दूध और पानी की तरह कर्म और आत्माको जुदा-जुदा कर देता है वही परमहंस साघु हैं । जो आगकी तरह सर्वभक्षी हैं जो मिल जाये वही खा लेता हैं वह परमहंस नहीं है। ८४४। जिसका मन ज्ञानसे, शरीर चारित्रसे और इन्द्रियाँ नियमोंसे सद' प्रदीप्त रहती हैं वही तपस्वी हैं, जिसने कोरा वेष बना रखा है वह तपस्वी नहीं है । १८४५।। पाँचों इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयमें लगना ही पाँच तिथियाँ है । यतः इन्द्रियोंका अपने-अपने विषयमें प्रवृत्ति करना संसारका कारण है । अतः जो उनसे मुक्त हो गया उसे अतिथि कहते है ।।८४६ || भावार्थ- भोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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