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________________ २२४ श्रावकाचार-संग्रह यो हताशः प्रशान्ताशस्तमाशाम्बरमूचिरे । यः सर्वसङ्गसंत्यक्तः स नग्नः परिकीर्तितः ।। ८२८ रेषणात्क्लेशराशीनामृषिमाहुर्मनीषिणः । मान्यत्वादात्मविद्यानां महद्भिः कोय॑ते मुनिः ।।८२९ यः पापपाशनाशाय यतते स यतिभवेत् । योऽनीहो बेहगेहेऽपि सोऽनगारः सतां मतः ।। ८३० आत्माशुद्धिकरर्यस्य न संगः कर्मदुर्जनः । स पुमाञ्शुचिराख्यातों नाम्बुसंप्लुतमस्तकः ।। ८३१ धर्मकर्मफलेऽनीहो निवृत्तोऽधर्मकर्मणः । तं निर्मममुशन्तीह केवलात्मपरिच्छदम् ।। ८.२ यः कर्मद्वितयातीतस्तं मुमुखं प्रचक्षते । पार्लोिहस्य हेम्नो वा यो बद्धो बद्ध एव सः ।। ८३३ निर्ममो निरहंकारो निर्मानमदमत्सरः । निन्दायां संस्तवे चैव समधी: शंसितव्रतः ।। ८३४ योऽवगम्य यथाम्नायं तत्त्वं तत्त्वकभावनः । वाचंयम: स विज्ञेयो न मौनी पशुवन्नरः ।। ८३५ भुते व्रते प्रसंख्याने संयमे नियमे यमे । यस्योच्चैः सर्वदा चेतः सोऽनूचानः प्रकीर्तितः ।। ८३६ इसलिए उसे श्रमण कहते है ।।८२७॥ उसने अपनी लालसाओंको नष्ट कर दिया हैं अथवा उसकी लालसाएँ शान्त हो गयी हैं इसलिए उसे आशाम्बर कहते है और वह अन्तरंग तथा बहिरंग सब परिग्रहोंसे रहित है इसलिए उसे नग्न कहते है ॥८२८।। क्लेशसमूहको रोकनेके कारण विद्वान् लोग उसे ऋषि कहते हैं। और आत्म विद्यामें मान्य होनेके कारण महात्मा लोग उसे मुनि कहते है। ॥८२९॥ जो पापरूपी बन्धनके नाश करनेका यत्न करता है उसे यति कहते है और शरीररूपी घरमें भी जिसकी रुचि नहीं है, उसे अनगार कहते हैं ॥८३०॥ जो आत्माको मलिन करनेवाले कर्म रूपी दुर्जनोंसे सम्बन्ध नहीं रखता, वही मनुष्य शुचि या शुद्ध है, सिरसे पानी डालनेवाला नहीं। अर्थात् जो पानीसे शरीरको मलमलकर धोता हैं वह पवित्र नहीं है किन्तु जिसकी आत्मा निर्मल हैं वही पवित्र हैं । अर्थात् यद्यपि मुनि स्नान नहीं करते किन्तु उनकी आत्मा निर्मल है इसलिए उन्हें पवित्र या शुचि कहते है ॥८३२।। जो धर्माचरणके फलमें इच्छा नहीं रखता तथा अधर्माचरणका त्यागी हैं और केवल आत्मा ही जिसका परिवार या सम्पत्ति हैं उसे निर्मम कहते हैं । अर्थात् मुनि अधार्मिक काम नहीं करते, केवल धार्मिक काम करते हैं। किन्तु उन्हें भी किसी लौकिक फलकी इच्छासे नहीं करते, अपना कर्तव्य समझकर करते हैं । और उनके पास अपनी आत्माके सिवाय और कुछ रहता नहीं है, शरीर हैं किन्तु उससे भी उन्हें कोई ममता नहीं रहती, इसीलिए उन्हें 'निर्मम' कहते है ।। जो ।।८३२॥ पुण्य और पाप दोनोंसे रहित हैं उसे मुमुक्ष कहते हैं। क्योंकि बन्धन लोहेके हों या सोनेके हों,जो उनसे बँधा हैं वह तो बद्ध ही हैं । अर्थात् पुण्यकर्म सोनेके बन्धन हैं और पापकर्म लोहेके बन्धन है दोनों ही जीवको संसारमें बाँधकर रहते हैं। अतः जो पापकर्मको छोडकर पुण्यकर्ममें लगा हैं वह भी कर्मबन्ध करता हैं,किन्तु जो पुण्य और पाप दोनों को छोडकर शुद्धोपयोगमें सलीन है वही मुमुक्षु है ।।८३३॥ जो ममतारहित है, अहंकाररहित हैं, मान, मस्ती और डाहसे रहित हैं तथा निन्दा और स्तुतिमें समान बुद्धि करता है यह प्रशंसनीय व्रतका धारक 'समधी'कहलाता हैं ।। ८३४।। जो आम्नायके अनुसार तत्त्वको जानकर उसीका एकमात्र ध्यान करता है उसे मौनी जानना चाहिए । जो पशुकी तरह केवल बोलता नहीं हैं वह मौनी नहीं हैं ॥८३५॥ जिसका मन श्रुतमें, व्रतमें, ध्यानमें, संयममें तथा यम और नियममें संलग्न रहता है उसे अनूचान कहते हैं अर्थात् वैदिक धर्ममें साङग वेदके पूर्ण विद्वान्को अनूचान कहते है। किन्तु ग्रन्थकारका कहना हैं कि जो श्रुत, व्रत नियमादिकमें रत हैं वही अनूचान है । और इसलिए जैनम नि ही 'अनूचान' कहे जा सकते हैं ।। ८३६।। जो इन्द्रियरूपी चोरोंका विश्वास नही करता तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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