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________________ यशस्तिलचकम्पूगत-उपासकाध्ययन २२३ नतेर्गोत्रं श्रियो दानादुपास्ते: सर्वसेव्यताम् । भक्तेः कीर्तिमवाप्नोति स्वयं दाता यतीन्भजन् ।।८२० मूलवतं व्रतान्यर्चापर्वकर्माकृषिक्रियाः । दिवा नवविधं ब्रह्म सचित्तस्य विवर्जनम् ।। ८२१ परिग्रहपरित्यागो भुक्तिमात्रानुमान्यता । तद्धानौ च वदन्त्येतान्येकादश यथाक्रमम् ।। ८२२ अध्यधिवतमारोहेत्पूर्वपूर्वव्रतस्थितः । सर्वत्रापि समा: प्रोक्ता ज्ञानदर्शनभावनाः ।। ८२३ षडत्र गृहिणो ज्ञेयास्त्रयः स्युब्रह्मचारिणः । भिक्षुको द्वौ तु निदिष्टौ ततः स्यात्सर्वतो यतिः ।।८२४ तत्तद्गुणप्रधानत्वाधतयोऽनेकधा स्मृताः । निरुक्ति युक्तितस्तेषां वदतो मन्निबोधत ।। ८२५ जित्वेन्द्रियाणि सर्वाणि यो वेत्त्या-मानमात्मना । गहस्थो वा स जितेन्द्रिय उच्यते ।। ८२६ । मानमायामदामर्षक्षपणाक्षपणः स्मृतः । यों न श्रान्तो भवेद्धान्तेस्तं विदुः श्रमण बुधाः ।। ८२७ भी इसीका हैं इसप्रकार कहकर दान देना, दान देते हुए भी आदरपूर्वक न देना या अन्य दाताओंसे ईर्ष्या करना और साधुओंके भिक्षाके समयका उल्लंघन करना ये पाँच बातें मुनिदान व्रतमें दोष लगानेवाली हैं । अतः श्रावकको इन्हें नहीं करना चाहिए ।।८१९।। जो दाता स्वयं यतियोंको दान देता है उसे मनिको नमस्कार करनेसे उच्च गोत्र मिलता है, दान देनेसे लक्ष्मी मिलती हैं, उनकी उपासना करनेसे सब लोग उनकी सेवा करते है. और उनकी भक्ति करनेसे संसारमं यश होता हैं ॥८२०। (अब थावककी ग्यारह प्रतिमाएँ बतलाते है-) सम्यग्दर्शनके साथ अष्टमलगणका निरतिचार पालन करना पहली प्रतिमा है । पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंको निरतिचार पालन करना दूसरी व्रत प्रतिमा है। नियमसे तीनों सन्ध्याओंको विधिपूर्वक स मायिक करना तीसरी सामायिक प्रतिमा हैं। (ग्रन्थकारने उसके लिए अर्चा शब्दका प्रयोग किया हैं जिसका अर्थ पूजा होता हैं। उन्होंने सामायिकमें पूजनपर विशेष जोर दिया है। इसीसे अर्चा शब्दका किया जान पडता है। ) प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको नियमसे उपवास करना चौथी प्रोषधोपवास प्रतिमा हैं । खेती आदिका न करना पाँचवीं प्रतिमा है। दिन में ब्रह्मचर्यका पालन करना छठी दिवामैथुनत्याग प्रतिमा हैं। मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनासे स्त्रीसेवनका त्याग सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा हैं। सचित्त वस्तुके खानेका त्याग करना आठवीं सचित्तत्याग प्रतिमा है। समस्त परिग्रहका त्याग देना नौवीं परिग्रहत्याग प्रतिमा है। किसी आरम्भ उद्योग या विवाहादि कार्यमें अनुमति न देकर केवल भोजन मात्रमें अनुमति देना दसवीं आरम्भत्याग प्रतिमा हैं और अपने भोजनमें भी किसी प्रकारकी अनुमति नहीं देना ग्यारहवीं प्रतिमा है। ये क्रमसे ११ प्रतिमाएँ है ।।८२१-८२२॥ प्रतिमा धारणाका क्रम तथा उनके धारकोकी संज्ञाएँ-पूर्व पूर्व प्रतिमा रूप व्रतमें स्थित होकर अपने ऊपर के व्रतपर आरोहण करे । ज्ञान और दर्शन की भावनाएँ तो सभी प्रतिमाओंमें समान कही है। ८२३ । इन ग्यारह प्रतिमाओंमें से पहलेकी छह प्रतिमाके धारक गुहस्थ कहे जाते हैं । सातवीं, आठवीं और नौवीं प्रतिमाके धारक ब्रह्मचारी कहे जाते हैं तथा अन्तिम दो प्रतिमावाले भिक्षु कहे जाते हैं और उन सबसे ऊपर मुनि या साधु होता है ।।८२४।। उन-उन गुणोंकी 'प्रधानताके कारण मुनि अनेक प्रकारके बतलाये है । अब उनके उन नामोंकी युक्तिपूर्वक निरुक्ति बतलाते है, उसे मुझसे सुनिए ।।८२५॥ जो सब इन्द्रियोंको जीतकर अपनेसे अपनेको जानता है वह गृहस्थ हो या वानप्रस्थ, उसे जितेन्द्रिय कहते हैं ।।८२६।। मान, माया,मस्ती और रोधका नाश कर देनेसे क्षपण कहते है और जगह-जगह विहार करता हुआ वह थकता नहीं है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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