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श्रावकाचार-संग्रह
अस्त्रघारणवबाह्ये क्लेशे हि सुलमा नराः । यथार्थज्ञानसंपन्ना शौण्डीरा इव दुर्लभाः ।। ८११ . ज्ञानभावनया हीने कायक्लेशिनि केवलम् । कर्मवाहीकवत्किञ्चिद्व्येति किञ्चिदुदेति च ।। ८१२ सणिवज्ञानमेवास्य वशायाशयदन्तिनः । तदृते च बहिः पलेशः क्लेशः एव परं भवेत् ।। ८१३ बहिस्तपः स्वतोऽभ्येति ज्ञानं भावयत: सत: । क्षेत्रज्ञे यनिमग्नेऽत्र कुतः स्युरपराः क्रियाः।। ८१४ यदज्ञानी युगः कर्म बहुन्निःक्षपयेन वा । तज्ज्ञानी योगसंपन्नः क्षपयेत्क्षणतो ध्रुवम् ॥ ८१५ ज्ञानी पटुस्तदैव स्याहिः क्लेष्टर्वतेऽखिले । ज्ञातुर्ज्ञानसवेऽत्यस्य न पटुत्वं युगैरपि ॥ ८१७ स्वरूपं रचना शुद्धिर्भूषार्थश्च समासतः। प्रत्येकमागमस्यैतद्वैविध्यं प्रतिपद्यते ॥ ८१८
__ तत्र स्वरूपं च द्विविधम्- अक्षरम् अनक्षरं च । रचना द्विविधा- गद्यम्, पद्यं च । शुद्धिद्विविधा-प्रभादप्रयोगविरहः, अर्थव्यञ्जनविकलतापरिहारश्च । भूषा द्विविधा-वागलंकारः, अर्थालंकारश्च । अर्थो द्विविध:-चेतनोऽचेतनश्च जातिय॑क्तिश्चेति वा। सार्ध सचित्तनिक्षिप्तवृत्ताभ्यां दानहानये । अन्योपदेशमात्सर्यकालातिक्रमणक्रियाः ।। ८५९ तत्त्वोंका यान होता है और शास्त्रसे ही जिन-शासनकी वृद्धि होती है। यदि शास्त्र न हों तो अपने कल्याणके इच्छुक जनोंकों सर्वत्र अन्धकार ही दिखलायी दे ।।८१०।। जैसे तलवार वगैरह बाँधनेका कष्ट उठानेवाले मनुष्य तो सरलतासे मिल जाते हैं, किन्तु सच्चे शूरवीरोंका मिलना दुर्लभ है । वैसे ही बाह्य कष्ट उठानेवाले मनुष्य सुलभ है किन्तु सच्चे ज्ञानी दुर्लभ है ।। ८. १।। जो मनुष्य ज्ञानकी भावनासे शून्य है और केवल शरीरको कष्ट देता है, बोझ ढोनेवाले मनुष्यकी तरह उसका एक कष्ट जाता हैं तो दूसरा आ जाता है और इस तरह वह केवल कायक्लेश हो उठाता रहता है।।८१२।। मनष्यके मनरूपी हाथीको वशमें करनेके लिए ज्ञान ही अंकुशके तुल्य है अर्थात् जैसे अंकुश हाथीको रोकता हैं वैसे ही ज्ञान मनुष्यके मनको बुरी तरफ जानेसे रोकता है । उस ज्ञान के बिना जो शारीरिक कष्ट उठाया जाता हैं वह कष्ट केवल कष्ट ही के लिए हैं, उससे कुछ भी लाभ नहीं होता १८१३॥ जो ज्ञानकी भावना करता हैं उसे बाह्य तप स्वयं प्राप्त हो जाता हैं! क्योंकि जब आत्मा ज्ञानमें लीन हो जाता हैं तो अन्य क्रियाएँ कैसे हो सकती हैं? ॥८१४॥ अज्ञानी जिस कर्मको बहतसे युगोंमें भी नहीं नष्ट कर पाता ; ध्यानसे युक्त ज्ञानी पुरुष उस कर्मको निश्चयसे क्षग-भरम ही नष्ट कर देता है ।।८१५।। समस्त बाह्य व्रतोंमें क्लेश उठानेवाले अज्ञानी यतिसे ज्ञानी पुरुष तत्काल कुशल हो जाता हैं, किन्तु बाह्य व्रतोंको करनेवाला अज्ञानी, युग बीत जानेपर भी ज्ञानके एक अंशमें भी कुशल नहीं होता ।।८१६।। जिसकी वाणी व्याकरणके द्वारा शुद्ध नहीं हुई और बुद्धि नयोंके द्वारा शुद्ध नहीं हुई वह मनुष्य दूसरोंके विश्वासके अनुसार चलनेसे कष्ट उठाता हुआ अन्धेके समान आचरण करता हैं ।।८१७:। प्रत्येक शास्त्र में संक्षेपसे इतनी बातें होती हैं-स्वरूप, रचना, शद्धि, अलंकार और वर्णित विषय । ये प्रत्येक दो-दो प्रकारके होते हैं। ८१८।। स्वरूप दो प्रकारका डोता है-अक्षररूप और अनक्षर रूप । रचना दो प्रकारकी होती हैं-गद्यरूप और पद्यरूप । शुद्धि दो प्रकारकी होती हैं-एक तो प्रमादसे कोई प्रयोग न किया हो, दूसरे न उसमें कोई अर्थ छूटा हो और न कोई शब्द छूटा हो । अलंकार दो तरहके होते हैं-एक शब्दालंकार और दूसरा अर्थालंकार । वणित विाय दो प्रकारका होता है-चेतन और अचेतन या जाति और व्यक्ति । सचित्त पत्ते आदिमें आहारको रखना,सचित्त पत्ते आदिसे आहारको ढांकना, यह दाता हैं और यह आहार
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