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यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन
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अभिमानस्य रक्षार्थ विनयायागमस्य च । भोजनादिविधानेषु मौनमूचुर्मुनीश्वराः ॥ ८०२ लोल्यत्यागात्तपोवृद्धिरभिमानस्य रक्षणम् । ततश्च समवाप्नोति मन:सिद्धि जगत्त्रये ॥ ८०३ धुतस्य प्रश्रयाच्छ यः समद्धेः स्यात्समाश्रयः। ततो मनुजलोकस्य प्रसीदति सरस्वतो।। ८०४ शारीरमानसागन्तुव्याधिसंगधसंभवे । साधुः संयमिनां कार्यःप्रतीकारो गृहाश्रितः ।। ८०५
तत्र दोषधातुमलविकृतिजनिताः शारीराः, दौमनस्यदुःस्वप्नसाध्वसादिसंपादिता मानसाः, शीतवाताभिघातादिकृता आगन्तवः । मुनीनां व्याधियुक्तानामुपेक्षायामुपासकैः । असमाधिर्मवेत्तेषां स्वस्य चाधर्मकर्मता ॥ ८०६ सौमनस्यं सदाऽऽचर्य व्याख्यातृषु पठत्सु च । आवासपुस्तकाहारसोकर्यादिविधानकैः ।। ४०७ अङ्गपूर्वप्रकीर्णोक्तं पूक्तं केवलिभाषितम् । नश्यन्निर्मूलतः सर्व श्रुतस्कन्धधरात्यये ।। ८०८ प्रश्रयोत्साहनानन्दस्वाध्यायोचितवस्तुभिः । श्रुतवृद्धान्मुनीन्कुर्वजायते श्रुतपारगः ।। ८०९ श्रुतात्तत्वपरिज्ञानं श्रुतात्समयवर्धनम् । श्रेयोऽथिनां श्रुताभावे सर्वमेततमस्यते ।। ८१० कारण होता है; क्योंकि भक्ति ही चिन्तामणि हैं ।।८००-८०१।। अब भोजनके समय मौनका विधान करते है-जिनेन्द्र भगवान्ने अभिमानकी रक्षाके लिए और श्रुतकी विनयके लिए भोजन आदि के समय मौन करना बतलाया है। भोजनकी लिप्साके त्यागनेसे तपकी वृद्धि होती है और अभिमानकी रक्षा होती है और उनके होनेसे मन वशमें होता है । श्रुतकी विनय करनेसे कल्याण होता हैं, सम्पत्ति मिलती हैं और उससे मनुष्यपर सरस्वती प्रसन्न होती हैं ।।८०२-८०४।। भावार्थ-भोजनके समय मौन करनेसे जूठे मुंह वाणीका उच्चारण नहीं करना पडता। यह वाणी की विनय हैं । इसके करनेसे वाणीपर असाधारण अधिकार प्राप्त होता है। जो लोग दिन-भर बक-झक करते है उनके वचनकी कीमत जाती रहती है। दूसरा लाभ यह हैं कि माँगना नहीं पडता। माँगनेसे स्वाभिमानका घात होता हैं और न माँगनेसे उनकी रक्षा होती है । तथा अपनी इच्छाको रोकना पड़ता है और इच्छाका रोकना तप है अतः मौनसे तपकी वृद्धि होती है और मन वशमें होता हैं, अतः मौनपूर्वक भोजन करना चाहिए। मुनिजनोंको शारीरिक,मानसिक या कोई आगन्तुक रोगादिककी बाधा होनेपर गृहस्थोंको उसका प्रतीकार करना चाहिए ॥८०५।। वात, पित्त, कफ, रुधिरादि धातु और मलके विकारसे जो रोग होते है उन्हें शारीरिक कहते है । मनके दूषित होनेसे, बुरे स्वप्नोंसे या भय आदिके कारणसे जो रोग होते हैं वे मानसिक हैं, ठण्डी वायु आदि लग जानेसे जो आकस्मिक बाधा हो जाती हैं उसे आगन्तुक कहते है । इन बाधाओंको दूर करने का प्रयत्न गृहस्थोंको करना चाहिए ; क्योंकि रोगग्रस्त मुनियोंकी अपेक्षा करनेसे मुनियोंकी समाधि नहीं बनती और गृहस्थोंका धर्म-कर्म नहीं बनता ।।८०६।।
श्रुतको रक्षाके लिए श्रुतधरोंकी रक्षा आवश्यक है - जो जिनशास्त्रोंका व्याख्यान करते है या उनको पढते है उन्हें, रहनेको निवास-स्थान, पुस्तक और भोजन आदिकी सुविधा देकर गृहस्थोंको सदा अपनी सदाशयताका परिचय देते रहना चाहिए ॥८०७।। क्योंकि श्रुतके व्याख्याता और पाठक श्रुतसमूहके धारक है-उनके नष्ट हो जानेसे केवली भगवान्के द्वारा उपदिष्ट ग्यारह अंग और चौदह पूर्व रूप समस्त श्रुतज्ञान जडसे नष्ट हो जायेगा ।।८०८। जो आश्रय देकर, उत्साह बढाकर, आराम देकर तथा स्वाध्यायके योग्य शास्त्र आदि वस्तुओंओ देकर मनियोंको शास्त्रमें निपुण बनानेंका प्रयत्न करते हैं वे स्वयं श्रुतके पारगामी हो जाते है ।।८०९।। श्रुत या शास्त्रसे ही
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