SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० श्रावकाचार-संग्रह उच्चावचजनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनाम् । नैकस्मिन्पुरुष तिष्ठेदेकस्तम्भ इवालयः ।। ७९० .. ते नामस्थापनाद्रव्यभावन्यासंश्चतुर्विधाः । भवन्ति मुनयः सर्वे दानमानादिकर्मसु ।। ७९१ उत्तरोत्तरभावेन विधिस्तेषु विशिष्यते । पुण्यार्जने गृहस्थानां जिनप्रतिकृतिष्विव ।। ७९२ अतद्गुणेषु भावेष व्यवहारप्रसिद्धये । यत्संज्ञाकर्म तन्नाम नरेच्छावशवर्तनात् ॥ ७९३ साकारे वा निराकारे काष्ठावो यन्निवेशनम् । सोऽयमित्यवधानेन स्थापना सा निगद्यते ॥ ७९४ आगामिगुणयोग्योऽर्थो द्रव्यन्यासस्य गोचरः । तत्कालपर्ययाक्रान्तं वस्तु भावो विधीयते ॥ ७९५ यदात्मवर्णनप्राय मणिकाहायं विभ्रमम् । परप्रत्ययसंभूतं वानं तद्राजसं मतम् ।। ७९६ पात्रापात्रसमावेश्वमसत्कारमसंस्तुतम् । दासभत्यकृतोद्योगं दानं तामसमूचिरे ॥ ७९७ आतिथेयं स्वयं यत्र यत्र पात्रनिरीक्षणम् । गुणाः श्रद्धादयो यत्र दानं तत्सात्त्विक विदुः ।। ७९८ उत्तमं सात्त्विकं दानं मध्यमं राजतं भवेत् । दानानामेव सर्वेषां जघन्यं तामसं पुनः ।। ७९९ यद्दत्तं तवमुत्र स्यादित्यसत्यपरं वचः । गावः पयः प्रयच्छन्ति कि न तोयतृणाशनाः ।। ८०० मुनिभ्यः शाकपिण्डोऽपि भक्त्या काले प्रकल्पितः । भवेदगण्यपुण्यार्थ भक्तिश्चिन्तामणिर्यतः ॥८०१ धर्मानुयायियोंमें अवश्य खर्च करना आहिए। ७८९।। जिन भगवान्का यह धर्म अनेक प्रकारके मनुष्योंसे भरा हैं । जैसे मकान एक खम्भेपर नहीं ठहर सकता वैसे ही यह धर्म भी एक पुरुषके आश्रयसे नहीं ठहर सकता ॥७९०।। नाम, स्थापना,द्रव्य और भावनिक्षेपकी अपेक्षासे मुनि चार प्रकारके होते है और वे सभी दान, सम्मानके योग्य हैं ।।७९१।। किन्तु गृहस्थोंके पुण्य उपार्जनकी दृष्टिसे जिनविम्बोंकी तरह उन चार प्रकारके मुनियोंमें उत्तरोत्तर रूपसे विशिष्ट विधि होती जाती है ।।७९२।। अब क्रमशः चारों निक्षेपोंका स्वरूप बतलाते है-नामसे व्यक्त होनेवाले गुणसे हीन पदार्थोमें लोक-व्यवहार चलानेके लिए मनुष्य अपनी इच्छानुसार जो नाम रख लेते है उसे नामनिक्षेप कहते हैं ॥७९३।। तदाकार या अतदाकार लकडी वगैरहमें यह अमक है इस प्रकारके अभिप्रायसे जो स्थापना की जाती हैं उसे स्थापनानिक्षेप कहते है।।७९४।। जो पदार्थ भविष्यमें अमुक गुणोंसे विशिष्ट होगा उसे अभी से ही उस नामसे पुकारना द्रव्य निक्षेप है। और जो वस्तु जिस समय जिस पर्यापसे विशिष्ट हैं उसे उस समय उसी रूप कहना भावनिक्षेप है ।।७९५।। अब प्रकारान्तरसे दानके तीन भेद बतलाते है-जो दान अपनी ख्यातिको भावनासे कभी-कभी किसीको तब दिया जाता है जब दूसरे दाताको वैसे दानसे मिलनेवाले फलको देख लिया जाता हैं, उस दानको राजस दान कहते है । अर्थात् उसे स्वयं तो दानपर विश्वास नहीं होता किन्तु किसीको दानसे मिलनेवाला फल देखकर कि इसने यह दिया था तो उससे इसे अमुक-अमुक लाभ हुआ,दान देता है। ऐसा दान रजोगुण प्रधान होनेसे राजस कहा जाता है ॥७९६॥ पात्र और अपात्रको समानरूपसे मानकर या पात्रको अपात्रके समान मानकर बिना किसी आदर-सम्मान और स्तुतिके, नौकर-चाकरोंके उद्योगपूर्वक जो दान दिया जाता हैं उस दानको तामस दान कहते है ।।७९७॥ जिस दान में स्वय पात्रको देखकर उसका अतिथि-सत्कार किया जाता हैं तथा जो श्रद्धा वगैरह के साथ दिया जाता हैं उस दानको सात्त्विक दान कहते है ।।७९८।। इन तीनों दानोंमें-से सात्त्विक दान उत्तम है, राजस दान मध्यम है और तामस दान सब दानोंमें निकृष्ट है ॥७९९।।जो दिया जाता है परलोकमें बही मिलता है,ऐसा कहना झूठ है। क्या पानी और घास खानेवाली गायें दूध नहीं देती है? अतः मुनियोंको समयपर भक्तिपूर्वक दिया गया शाक-पात भी अपरिमित पुण्यका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy