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________________ यशस्तिलचकम्पूगत-उपासकाध्ययन २३३ किञ्चयोषधक्रिया रिक्ता रोगिणोऽपथ्यसेविनः । क्रोधनस्य तथा रिक्ता: समाधिश्रुतसंयमाः ।। ८९९ मानदावाग्निदग्धेषु मदोषरकषायिषु । नद्रुमेषु प्ररोहन्ति न सच्छायोचिताकुराः ॥९०० यावमायानिशालेशोऽप्यात्माम्बुषु कृतास्पदः । न प्रबोधभियं तावद्धत्ते चित्ताम्बुजाकरः ।। ९०१ लोभकोकसचिन्हानि चेत.स्रोतांसि दूरतः । गुणाध्वन्यास्त्यजन्तीह चण्डालसरसीमिव ।। ९०२ तस्मान्मनोनिकेतेऽस्मिन्निदं शल्यचतुष्टयम् । यतेतोद्धर्तुमात्मज्ञः क्षेमाय शमकीलकः ॥ ९०३ षट्स्वर्थेष विसर्पन्ति स्वभावादिन्द्रियाणि षट् । तत्स्वरूपपरिज्ञानात्प्रत्यावर्तेत सर्वदा ॥ ९०४ आपाते सुन्दरारम्भविषाके विरसक्रियः । विषेर्वा विषय प्रेस्ते कुतः कुशलमात्मनि ॥ ९.५ दुश्चिन्तनं दुरालापं दुापारं च नाचरेत् । ती व्रतविशुद्धधर्थ मनोवाक्कायसंश्रयम् ।। ९०६ अभङ्गानतिचाराभ्यां गृहीतेषु व्रतेषु यत् । रक्षणं क्रियते शश्वत्तद्भवेद् व्रतपालनम् ।। ९०७ वैराग्यभावना नित्यं नित्यं तत्त्वविचिन्तनम् । नित्यं यत्नश्च कर्तव्यो यमेष नियमेषु च ।। ९०८ . गहरा राग होता है वह अनुत्कृष्ट शक्तिवाला लोभ हैं। जैसे शरीरका मल हल का गहरा होता है वैसे ही जो हलका गहग राग होता हैं वह अजघन्य शक्तिवाला लोभ है । तथा जैसे हल्दीका रंग हलका होता है और जल्दी ही उड जाता हैं वैसे ही जो बहुत हलका राग होता है वह जघन्य शक्तिवाला लोभ हैं । ये चारों प्रकारके लोभ जीवको क्रमशः चारों गतियोंमें उत्पन्न कराने में निमित्त होते हैं ।।८९८ । जैसे अपथ्य सेवन करनेवाले रोगीका दवा-सेवन व्यर्थ हैं वैसे ही क्रोधी मनष्यका ध्यान,शास्त्राभ्यास तथा संयम सब व्यर्थ है १८९९।। मानरूपी वनकी आगसे जले हए और मदरूपी खारी मिट्टीसे सने हुए मनुष्यरूपी वृक्षोंमें अच्छी छाया देनेवाले नये अंकुर नहीं उगते। अर्थात् जैसे वनकी आगसे जले हुए और खारी मिट्टीसे सने हुए वृक्ष में नये अंकुर पैदा नहीं होते वैसे जो मनुष्य घमंडी और अहंकारी है उनमें भी सद्गुण प्रकट नहीं हो सकते ॥९००। जैसे थोडी-सी भी रातके रहते हुए जलाशयमें कमल नहीं खिलते वैसे ही आत्मामें थोडी-सी भी मायाके रहते हुए चित्त बोधको प्राप्त नहीं होता। अर्थात् मायाचारीके हृदयमें ज्ञानका प्रवेश नहीं होता ॥९०१॥ जैसे गुणी पथिक चाण्डालोंके तालाबको दूरसे ही छोड़ देते है क्योंकि उसके स्रोतोंमें हड्डियाँ पडी होती हैं वैसे ही जिसके चित्तमें लोभका वास होता हैं उसे गुण दूरसे ही छोड़ देते है । अर्थात् लोभी मनुष्यके सभी गुण नष्ट हो जाते हैं ॥९०२।। अतः आत्मदर्शी मनुष्यको अपने कल्याणके लिए सयमरूपी कीलके द्वारा अपने मनरूपी मन्दिरसे इन चारों शल्योंको निकालनेका प्रयत्न करना वाहिए ।।९०३।। छहों इन्द्रियाँ स्वभावसे ही अपने-अपने विषयोंमें प्रवृत्त होती है। अत उन विषयोंके स्वरूपको जानकर सदा उन इन्द्रियोंको उनके विषयोंम फँसनेसे बचाना चाहिए ॥९०४।। ये विषय विषके समान हैं। जब प्राप्त होते हैं तो अच्छे मालम होते है किन्तु जब वे अपना फल देते हैं तो अत्यन्त विपरीत हो जाते हैं। जो आत्मा इन विषयोंके चक्करमें फंसा हुआ है उसकी कुशल कैसे हो सकती हैं? ।।९०५।। व्रती पुरुषको अपने व्रतोंको शुद्ध रखने के लिए मनमें बुरे विचार नहीं लाना चाहिए । वचनसे बुरी बात नहीं कहनी चाहिए और शरीरसे बुरी चेष्टा नहीं करनी चाहिए । जो व्रत ग्रहण किये हों उनमें न तो अतिचार लगने दे और न व्रतको खण्डित ह ने दे । इस प्रकार जो व्रतोंकी रक्षा की जाती हैं उसे ही व्रतोंका पालन करना कहा जाता है ।।९०६-९०७ । अतः सदा वैराग्यको भाना चाहिए । सदा तत्त्वोंका चिन्तन करते रहना चाहिए और सदा यम और नियमोंमें प्रयत्न करते रहना चाहिए ।।९०८।। देख हुए और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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