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________________ श्रावकाचार-संग्रह तत्र दृष्टानुश्राविकविषय वितृण्णस्य मनोवशीकारसंज्ञा वैराग्यम् । प्रत्यक्षानुमानागमानुभूतपदार्थविषयाऽसंप्रमोषस्वभावा स्मृतिस्तत्त्वविचिन्तनम् । बाह्याभ्यन्तरशौचतपःस्वाध्यापप्रणिधानानियमाः । अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा नियमाः । इत्येष गृहिणां धर्मः प्रोक्तः क्षितिपतीश्वर । यतीनां तु श्रुतात् ज्ञेयो मूलोत्तरगुणाश्रयः ।। ९०९ इति श्रीसकलताकिकलोकचूडामणेः श्रीमन्नेमिदेवभगवत: शिष्येण सद्योऽनवद्यगद्यपद्यविद्याधरचक्रवतिशिखण्डमण्डनीभवच्चरणकमलेन श्रीसोमदेवसूरिणा विरचिते यशोधरमहाराजचरिते यशस्तिलकापरनाम्नि महाकाव्ये धर्मामृतवर्षमहोत्सवो नामाष्टम आश्वासः : सुने हुए विषयोंकी तृष्णाको छोडकर मनको वशमें करनेको वैराग्य कहते हैं। प्रत्यक्षसे,अनुमानसे और आगमसे जाने हुए पदार्थोका जो भ्रान्तिरहित स्मरण हैं उसे तत्त्वचिन्तन कहते है। बाह्य और आभ्यन्तर शौच तथा सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ध्यानको यम कहते है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहको नियम कहते हैं । इस प्रकार हे राजन्! यह गृहस्थोंका धर्म कहा । यतियोंका धर्म, उनके मूल गुण और उत्तरगुण आगमसे जानना चाहिए ।।९०९॥ इस प्रकार समस्त तार्किकलोकचूडामणि श्रीमान् ने मिदेवआर्य के शिष्य, निर्दोष गद्य-पद्य-रचना करनेवाले विद्वज्जन-चक्रवर्तियोंके शिखामणिके समान शोभायमान चरण-कमवाले श्रीसोमदेव सूरि विरचित यशोधरचरित अपर नामक यशस्तिलकचम्पूमहाकाव्यमें धर्मामृतवर्ष महोत्सव नामका यह आठवाँ आश्वास समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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