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________________ ३८. श्रावकाचार-संग्रह विबुध्येति महादोषं पररामा मनीषिभिः । विधा दूरतः सद्भिभुजङ्गीव भयङ्करा ॥९१ नामापि कुरुते यस्या गृहीतं गुरु कल्मषम् । मृगया सा त्रिधा हेया भवदुःखविभीरुणा ॥९२ त्रस्यन्ति सर्वदा दोनाश्चलतः पर्णतोऽपि ये । हिस्यन्ते तेऽपि यर्जीवास्तेभ्यः किं निघृणा: परे ।।९३ निरागसः पराधीना: नश्यन्तो भयविव्हलाः । कुरङ्गा यनिहन्यन्ते पापिष्ठा न परे ततः ।।९४ गृहोतोऽपि तृणं दन्तैर्देहिनो मारयन्ति ये । व्यानेभ्यस्ते दुराचारा विशिष्यन्ते कथं खला: ॥९५ ये मारयन्ति निस्त्रिशा ये मार्यन्ते च विन्हलाः । तेषां परस्परं नास्ति विशेषस्तक्षणं विना ॥९६ स्वमाप्तं परमांसयें पोषयन्ति दुराशयाः । स्वमांसमेव खाद्यन्ते हठतो नारकैरिमे ॥९५ स्वल्पायुविकलो रोगी विचक्षुर्बधिरः खलः । वामन: पामनः षण्ढो-जायते स भवे भवे ॥९८ दुःखानि यानि दृश्यन्ते दुःसहानि जगत्त्रये । सर्वाणि तानि लभ्यते प्राणिमर्वनकारिणा ॥९९ इति दोषवती मत्वा मृगया हितकांक्षिणा । नानाऽनर्थकरी त्याज्या राक्षसीव विभीषणा ।।१०० भोजनं कुर्वता कार्य मोनं शीलवता सता । सन्तोषित्वमिवानिन्धं मैक्ष्यशुद्धिविधायिना ॥१०१ सर्वदा शस्यते जोषं भोजने तु विशेषतः । रसायनं सदा श्रेष्ठं सरोगित्वे पुनर्न किम् ॥१०२ इस प्रकार परस्त्री-सेवनके महादोषोंको जानकर मनीषी सत्-पुरुषोंको परस्त्री भयंकर सर्पिणीके समान दूग्से ही छोड देनी चाहिए ॥९१ अब आचार्य मृगया (शिकार) व्यसनका निषेध करते हैं-जिसका नाम लेना भी भारी पापका उपार्जन करता है, वह मृगया संसारके दुःखोंसे डरनेवाले पुरुषको मन वचन कायसे छोड देना चाहिए ।।९२।। जो बेचारे दीन प्राणी पत्तेके हिलनेसे भी सदा त्रासको प्राप्त होते हैं, उन्हें जो मारते हैं उनसे अधिक निर्दयी और कौन है ।।९३।। जो लोग निरपराधी,पराधीन, भय-विव्हल हो भागते हुए ऐसे हरिणोंको मारते है, उनसे अधिक और कोई पापी नहीं है ।.९४॥ जो दाँतोंसे तणोंको दबाये हई है, ऐसे हरिणादिकको जो मारते हैं,वे दुष्ट दुराचारी मनुष्य व्याघ्रोंसे कैसे विशिष्ट हैं? अर्थात वे व्याघ्रसमान ही हैं ॥१५॥ जो निर्दयी पुरुष जीवोंको मारते हैं और जो भय-विव्हल जीव मारे जाते है, उन दोनोंमें परस्पर उस क्षणके विना और कोई विशेषता नहीं है भावार्थ-वर्तमान समयमें तो मरनेवाले और मारनेवाले में हीनाधिकता है। किन्तु आगे नरकगतिमें उत्पन्न होनेपर वे आपसमें एक दूसरेको मारेंग, अतः वहाँकी अपेक्षा कोई होनाधिकता नहीं है ।।९६।। जो दुष्टचित्त जीव दूसरोंके मांससे अपने मांसको पोषित करते है, वे जीव हठात् नारकियोंके द्वारा अपने ही मांसको खाते हैं। भावार्थ-जो यहाँपर पराये मांसको खाते है, नरकम उत्पन्न होनेपर वहाँ नारकी उन्हीं का मांस काट-काटकर उन्हें खिलाते है ॥९७। शिकार खेलनेवाला मनुष्य भव भव में अल्पायुका धारी, विकलांगी, रोगी, अन्धा, बहिरा, दुष्ट, बौना, कोढी और नपुंसक होता है ।।९८।। इस तीन जगत्में जितने भी दुःसह भयानक दुःख दिखाई देते है, वे सर्व दुःख जीवोंका घात करनेवाला प्राणो पाता हैं ।।९९।। इस प्रकारसे अत्यन्त दोषवाली मृगयाको जानकर अपना हित चाहनेवाले पुरुषको नाना अनर्थ करनेवाली भयानक राक्षसीके समान उसका त्याग कर देना चाहिए ।। १००॥ ___अब आचार्य मौनके गुणोंका वर्णन करते हुए भोजनादिके समय मौन-धारण करने का उपदेश देते हैं-जैसे भिक्षाकी शुद्धिका आचरण करनेवाले साधुको अनिन्द्य सन्तोषपनाके साथ मौन-धारण करना आवश्यक हैं, उसी प्रकार शीलवान् पुरुषको भी भोजन करते हुए सदा मौन धारण करना चाहिए ॥१०१।। मौन सदा रहना ही प्रशंसनीय है। फिर भोजनके समयमें तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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