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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३७९ यच्चेह लौकिकं दुःखं परनारी निषेवणे । तत्प्रसून मतं प्राज्ञैर्नारकं दारुणं फलम् ।। ७९ स्वजनै रक्ष्यमाणायास्तस्या लामोऽतिदुष्करः । तापस्तु चिन्त्यमानायां सर्वाङ्गीणो निरन्तरः ॥८. प्राप्यापि कष्टकष्टेन तां देशे यत्र तत्र वा। कि सुखं लभते भीत: सेवमानस्त्वरान्वितः ।।८१ या हिनस्ति स्वकं कान्तं सा जार न कथं खला। विडाली याऽत्ति पुत्रं स्वं सा कि मुञ्चति मूषकम्॥८२ यावद्दर्श कुचेतस्क: कि वाञ्छति पराङ्गनाम् । न पापत: परो लाभ: कदाचित्तत्र विद्यते ॥८३ या स्वं मुञ्चति भरि विश्वासस्तत्र कीदृशः । का विश्वासमते स्नेहः किं सुखं स्नेहतो विना ।।८४ वधो बन्धो धनभ्रंशस्ताप: शोक: कुलक्षयः । आयासः कलहो मृत्य. पारदारिक-बान्धवाः ॥८५ लिङ्गच्छेदं खरारोहं कुलालकुसुमार्चनम् । जननिन्दामभोग्यत्वं लभते पारदारिकः ।।८६ लब्ध्वा विडम्बना गमित्र प्राप्तः स पञ्चताम् । श्वभ्रे यदःखमाप्नोति कस्तद्वयितं क्षमः ।।८७ एकान्ते यौवन-ध्वान्ते नारों नेदीयसी सतीम् । दृष्ट्वा क्षुभ्यति धीरोऽपि का वार्ता कातरे जने।।८८ जल्पनं हसनं नर्म क्रीडा वस्त्रावलोकनम् । आसनं गमनं स्थानं वर्णनं भिन्नभाषणम् ।।८९ नार्या परिचयं साधं कुर्वाणः परकीयया । वृद्धोऽपि दूष्यते प्रायस्तरुणो न कथं पुनः ।.९० अपितु जलाती ही है ।।७८।। परस्त्रीके सेवन करने पर इस लोकमें जो लौकिक दुःख प्राप्त होते है, ज्ञानियोंने उन्हें तो उसके फूल कहे हैं और नरकोंके दारुण दुःख उसके फल कहे है ।।७९।। स्वजनोंके द्वारा रक्षा की जाती हुई परस्त्रीकी प्राप्ति ही प्रथम तो अतिदुष्कर है। उसे पानेकी चिन्ता करते रहनेपर निरन्तर सर्व अंगम सन्ताप उत्पन्न होता है ।।८०। यदि वह परस्त्री किसी प्रकार अतिकष्टसे प्राप्त भी हो जाय तो जिस किसी स्थानपर भयभीत होकर आतुरतासे युक्त होकर सेवन करता हुआ पुरुष क्या सुख पा सकता है? कुछ भी नहीं ॥८१ । जो परस्त्री अपने सग पतिको भी मार डालती हैं, वह दुष्ट क्या अपने जारको नहीं मार सकती हैं? जो बिल्ली अपने पुत्रको खा जाती हैं, वह क्या चूहीको छोड देगी ॥८२।। ऐसी आपदा देनेवाली परस्त्रीको खोटे चित्तवाले पुरुष क्यों भोगते हैं, यह आश्चर्य एवं दुःखकी बात हैं । परस्त्रीके सेवन में पापके सिवाय कदाचित् भी कोई लाभ नहीं है ।। ८३।। जो परस्त्री अपने भर्तारको भी छोड देती हैं, उसमें विश्वास कैसा? और विश्वासके विना स्नेह कैसा? तथा स्नेहके विना सुख क्या मिल सकता है।।८४।। वध, बन्ध, धन-विनाश, सन्ताप, शोक, कुल-क्षय, परिश्रम, कलह और मृत्यु ये सभी अवगुण परस्त्री-सेवन करनेवाले पुरुषके बान्धव है ।।८५।। परस्त्री-सेवी पुरुष इसी लोकमें लिंगके छेदनको, गधेपर चढनेको, कुलाल-कुसुमोंके द्वारा पूजनको अर्थात् गोबरी कंडों आदिको मारको, जन-निन्दाको और अभोगपना या दुर्भाग्यको प्राप्त होता है ।।८६ । इस प्रकार इसो लोकमें उक्त प्रकारकी बडी-बडी विडम्बनाओंको पाकर वह मरणको प्राप्त होता हैं और नरकों में उत्पन्न होकर वहाँ पर जो जो दुःख पाता है, उसे वर्णन करनेके लिए कौन समर्थ है । ८७।। एकान्त स्थानपर यौवनके अन्धकारमें अतिवृद्ध सती साध्वी स्त्रीको देखकर धीर-वीर पुरुष भी क्षोभको प्राप्त हो जाता है, तो फिर कायर पुरुषकी तो बात ही क्या है ।।८८।। परायी स्त्रीके साथ एकान्तमें बोलना, हँसना, मजाक करना, खेलना, उनका मुख देखना अथवा 'वक्र'-पाठ माननेपर तिरछी नजरसे देखना, उनके साथ बैठना, गमन करना, खडे रहना, किसी बातका वर्णन करना, शील-भेदक संभाषण करना और परिचय प्राप्त करना आदि कार्य करते हुए प्रायः वृद्ध पुरुष भी दोषको प्राप्त होता है, तो फिर जवान पुरुष क्यों नही दोषको प्राप्त होगा? अवश्य ही होगा ॥८९-९०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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