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________________ ३७८ श्रावकाचार-संग्रह सत्यं शीलं शमं शौचं संयम नियम दमम् । प्रविशन्ति बहिर्मुक्त्वा विटा: पण्याङ्गनागृहम् ।।६७ तपो व्रतं यशो विद्या कुलीनत्वं दमो दया । छेद्यन्ते वेश्यया सद्यः कुठार्येवाखिला लताः ॥६८ जननी जनको भ्राता तनयस्तनया स्वसा । न सन्ति वल्लभास्तस्य दारिका यस्य वल्लभाः ॥६९ न तस्मै रोचते सेव्यं गुरूणां वचनं हितम् । सशर्करमिव क्षीरं पित्ताकुलितचेतसे ॥७० वेश्यावक्त्रगतां निन्द्यां लालां पिबति योऽधमः । शुचित्वं मन्यते स्वस्य का पराऽतो विडम्बना ।।७१ यो वेश्यावदनं निस्ते मूढो मद्यादिवासितम् । मद्यमांसपरित्यागवतं तस्य कुतस्तनम् ।।७२ वदनं जघनं यस्या नीचलोकमलाविलम् । गणिकां सेवमानस्य तां शौचं बत कीदृशम् ।।७३ या परं हृदये धत्ते परेण सह भाषते । परं निषेवते लुब्धा परमाव्हयते दृशा ॥७४ सरलोऽपि स वक्षोऽपि कुलीनोऽपि महानपि । ययेारिव निःसार: सुपर्वापि विमुच्यते ॥७५ न सा सेंव्या त्रिधा वेश्या शीलरत्नं यियासता । जानानो न हि हिंस्रत्वं व्याघ्री स्पृशति कश्चन ॥७६ तिरश्ची मानुषी देवी निर्जीवा च नितम्बिनी । परकीया न भोक्तव्या शीलरत्नवता विधा । ७७ जीवितं हरते रामा परकीया निषेविता । प्लोषते सर्पिणी दुष्टा स्पृष्टा दृष्टिविषा न किम् ।।७८ गुणोंको बाहिर ही छोडकर वेश्याके घर में प्रवेश करते है । अर्थात् वेश्याके घरमें प्रवेश करते ही उक्त सर्व धर्मकार्योका विनाश हो जाता हैं ।।६७।। जैसे कुठारीके द्वारा सभी लताएँ विच्छिन्न हो जाती है, उसी प्रकार वेश्याके द्वारा तप व्रत यश विद्या कुलीनता इन्द्रिय-दमन और दया आदि गुण शीघ्र विच्छिन्न हो जाते हैं ।। ६८। जिस पुरुषको वेश्या प्यारी है, उसे मातापिता भाई पुत्र पुत्री और बहिन आदि कोई भी प्यारे नहीं रहते हैं ॥६९।। वेश्या-व्यतनी पुरुषको गुरुजनोंके हितकारी सेवन-योग्य वचन भी नहीं रुचते हैं, जैसे कि पित्तसे आकुलित चित्तवाले पुरुषको शक्कर मिला-हुआ दूध भी नहीं रुचता हैं ।।७०।। जो अधम पुरुष वेश्याके मुखकी निन्द्य लारको पीता हैं और फिर भी अपने आपके पवित्रता मानता है, इससे अधिक और क्या विडम्बना हो सकती हैं ॥७१।। जो मूढ मनुष्य मदिरा आदिसे वासित वेश्याके मुखको चूमता है, उसके मद्य और मांसके परित्यागका व्रत कैसे रह सकता है ॥७२॥ जिस वेश्याका मुख और जधन नीच लोगोंके थूक और मत्रादि मलसे व्याप्त रहता है, ऐसी वेश्याको सेवन करनेवाले पुरुषके बताओ-पवित्रता कैसे रह सकती हैं ॥७३॥ जो वेश्या किसी अन्य पुरुषको हृदयमें धारण करती हैं, किसी और के साथ संभाषण करती हैं, धनकी लोभिनी होकर किसी अन्य का सेवन करती हैं और नेत्र-कटाक्षसे किसी और पुरुषको बुलाती है, (वह क्या कभी किसीके साथ सच्चा प्यार कर सकती है ) ।।७४।। जिस वेश्याके द्वारा सरल, सुचतुर, कुलीन और महान् भी पुरुष धन रहित होने पर उत्तम पोर वाले निःसार साँठेके समान छोड दिया जाता हैं, (उस वेश्याके साथ प्रीति करना कहाँ तक उचित है) ॥७५।। इसलिए शीलरूप रत्नकी रक्षा करनेके इच्छुक पुरुषको मन वचन और कायसे ऐसी वेश्याका कभी सेवन नहीं करना चाहिए । व्याघ्रीकी हिंसकताको जानता हुआ कोई पुरुष उसका स्पर्श नहीं करता है ॥७६।। अब आचार्य परस्त्री व्यसनका निषेध करते हैं-शीलवान् पुरुषको तिर्यचनी, मनुष्यनी, . देवी और निर्जीव काष्ठ पाषाणरूप आकार वाली स्त्री, ये चारों ही प्रकारकी परायी स्त्रियोंको मन वचन कायसे कभी भी नहीं भोगना चाहिए।।७७॥ सेवन को गई परायो स्त्री मनष्यके जीवन का अपहरण करती है। दुष्ट दृष्टिविषवाली सर्पिणी स्पर्श किये जाने पर क्या नहीं जलाती है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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