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अमितगतिकृतः श्रावकाचारः
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विषादः कलहो रोटि: कोपो मानः श्रमो भ्रमः । पैशुन्यं मत्सरः शोक: सर्वे द्यूतस्य बान्धवाः ॥५५ दुखानि तेन जन्यन्ते जलानीवाम्बुवाहिना । व्रतानि तेन धूयन्ते रजांसीव च वायना ।।५६ न श्रियस्तत्र तिष्ठन्ति चूतं यत्र प्रवर्तते । न वृक्षजातयस्तत्र विद्यन्ते यत्र पावकः ।।५७ मातुरप्युत्तरीयं यो हाते जनपूजितम् । अकर्तव्यं परं तस्य कुर्वतः कीदृशी त्रपा ।।५८ सम्पदं सकलां हित्वा स गण्हाति महाऽऽपदमा स्वकुलं मलिनीकृत्य वितनोति च दर्यशः ।।५९ नरकरपरः क्रुद्धारकस्येव मस्तके । जनस्य कितवस्तस्य दुर्वालो ज्वाल्यतेऽनल: ।।६० कर्कशं दुःश्रवं वाक्यं जल्पन्तो वञ्चिताः परे । कुर्वन्ति युतकारस्य कर्णनासादिकर्तनम् ॥६१ विज्ञायेति महादोष वृतं दीव्यन्ति नोत्तमाः । जानानाः पावकोष्णत्वं प्रविशन्ति कथं बधाः ॥६२ वितनोति दृशा रागं या वात्येव रजोमयी। विध्वंसयति या लोकं शर्वरीव तमोमयी ॥६२ या स्वीकरोति सर्वस्वं चौरीवार्थपरायणा। छलेन या निगण्हाति शाकिनीवामिषप्रिया । ६४ बन्हिज्वालेव या स्पष्ट। सन्तापयति सर्वतः । शुनीव कुरुते चाटु दानतो यातिकश्मला ॥६५ विमोहयति या चितं मदिरेव निषेविता । सा हेया दूरतों वेश्या शीलालङ्कारधारिणा ॥६६
विषाद, कलह, राड, क्रोध, मान, श्रम, भ्रम, पैशुन्य, मत्सर और शोक ये सभी द्यूतके बान्धव है। अर्थात् जहाँ छुत-सेवन होगा, वहाँ पर सर्व ही दोष उपस्थित रहेंगे ॥५५॥ जैसे मेघोंके द्वारा जल उत्पन्न होता हैं, उसो प्रकार उघ द्यूतके द्वारा दुःख उत्पन्न होते है और जैसे पवनके द्वारा धूलि उडा दी जाती है, उसी प्रकार द्यूतके द्वारा व्रत उडा दिये जाते है ।।५६।। जहाँ पर द्यूतकी प्रवृत्ति होती है, वहां पर लक्ष्मी नहीं ठहरती है। जहाँ पर अग्नि विद्यमान हैं, वहाँ पर वक्षोंकी जातियाँ नहीं रह सकती हैं ।।५७।। जो द्यूत व्यसनी माताके भी जन-पूजित उत्तरीय (ओढनेके वस्त्र) को भी हर ले जाता है, उसे किसी भी नहीं करने योग्य कार्यको करते हुए लज्जा कैसे हो सकती हैं ।।५८॥ जुआ खेलने वाला पुरुष सर्व सम्पदाका त्याग कर महा आपदाओं को ग्रहण करता है और अपने कुलका मलिन करके अपयशको विस्तारता हैं ।।५९।। जैसे क्रोधित नारको अन्य नारकी के शिर पर भयंकर अग्नि जलाते है, उसी प्रकार अन्य जुआरी पुरुष भी हारने वाले जुआरीके मस्तक पर अग्नि जलाते है ।।६०.। जिनका धन ठग लिया गया , ऐसे जुआरी कर्कश और कर्णोको दु.खदायो वचनोंको बोलते हुए जुआरीके कान, नाक आदि अंगोंको काटते हैं ।। ६१।। इस प्रकार जुआ खेलनेके महादोषोंको जानकर उत्तम पुरुष जुआ नहीं खेलते हैं। अग्निकी उष्णताको जानते हुए ज्ञानी जन अग्निमें कैसे प्रवेश कर सकते हैं ।।६२॥
अब आचार्य वेश्या-व्यसनका निषेध करते हैं-जो धूलि उडानेवाली आँधीके समान आँखोंमें रागको विस्तारती हैं, जो अन्धकारमयी रात्रिके समान लोकका विध्वंस करती हैं, जो चोरके समान अर्थपरायण होकर दूसरेके सर्व धनका अपहरण करती है. जो मांस-भक्षण-प्रिय राक्षसीके समान लोगों को निगल जाती हैं अर्थात् उनके शरीरका सत्त्व खींच कर उन्हें निःसत्त्व कर देती हैं,
जो अग्नि ज्वालाके समान स्पर्श की हुई सर्व ओरसे सन्ताप उत्पन्न करती हैं, जो कुत्तीके समान ‘स्वार्थ-साधनके लिए अपने यारकी चाटुकारी करती हैं, जो दान देने में अति कृपण है । अथवा जो धन के देने से अति पापिनी कुत्तीके समान खुशामद करती है,और जो मदिराके समान सेवन की गई चित्तको विमोहित करती हैं, ऐसी वेश्या शीलरूप अलंकारको धारण करनेवाले पुरुषके द्वारा दूरसे ही हेय हैं ।।६३.६६।। व्यभिचारी पुरुष सत्य,शौच, शमभाव, शील, संयम, नियम,यम आदि सर्व
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