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________________ ३७६ श्रावकाचार-संग्रह मक्षयित्वा विषं घोरं वरं प्राणा विसजिताः। न कदाचिद्वतं भग्नं गृहीत्वा सूरिसाक्षिकम् ।.४४ वसनर्मूषण_नः सकलैरपि शोभते । शीलेन बुधपूज्येन न पुनर्वजितो जनः ॥४५ सहज भूषणं शीलं शीलं मण्डनमुत्तमम् । पाथेयं पुष्कलं शीलं शीलं रक्षणमूजितम् ।।४६ शीलेन रक्षितो जीवो न केनाप्यभिभूयते । महाहृदनिमग्नस्य किं करोति दवानलः ॥४७ बान्धवाः सुहृदः सर्वे निःशीलस्य पराङ्मुखाः । शत्रवोऽपि दुराराध्या: सम्मुखा: सन्नि शीलिनः ॥४८ शीलतो न परो बन्धुः शीलतो न परः सुहृत् । शीलतो न परा माता शोलतो न पर: पिता ॥४९ उपकारो न शीलस्य कर्तुमन्येन शक्यते । कल्पद्रुमः फलं दत्ते पर: कुत्र महोरुहः ।।५० तापेऽपि सुखितः शीली शीलमोची पुनर्जनः । चित्रं जनांगलिच्छाये स्थितोऽपि परितप्यते ।।५१ कदाचन न केनापि सुशील: परिभूयते । न तिरस्क्रियते यो हि श्लाघ्यते तस्य जीवितम् । ५२ भङ्गस्थानपरित्यागी व्रतं पलायतेऽमलम् । तस्करलु यते कुत्र दूरतोऽपि पलायितः ।।५३ नानानर्थकर द्यूतं मोक्तव्यं शीलशालिना । शीलं हि नाश्यते तेन गरलेनेव जीवितम् १५४ परिणामोंसे पापका उपार्जन कर नरकादिमें दुःखोंको भोगता हैं, ऐसा अभिप्राय जानना चाहिए। तिरस्कार किये गये राजा लोग तिरस्कार करनेवाले मनुष्यको एक बार ही दुःख देते है। किन्तु तिरस्कार किय गये गुरुजन भव-भवमें दुःख देते है । यहां पर भी ऊपर कहा भावार्थ जानना ।।४३।। भयंकर घोर विषको खाकरके प्राणोंका विसर्जन करना उत्तम है, किन्तु गुरुको साक्षी पूर्वक व्रतको ग्रहण करके उसे भग्न करना कदाचित् भी अच्छा नहीं है।।४४।।सर्व वस्त्रोंसे और आभूषणोंसे भी रहित पुरुष यदि विद्वत्पूज्य शीलसे संयुक्त हो, तो शोभाको प्राप्त होता है। किन्तु शीलसे रहित और वस्त्राभूषणोंसे भूषित पुरुष शोभाको नहीं पाता है ।।४५।। शील सहज भूषण हैं, शील उत्तम मण्डन है, शील पुष्ट पाथेय (मार्ग भोजन) है और शील हो जीवोंका परम संरक्षण हैं ।।४६।। शील से रक्षित पुरुष किसीके द्वारा भी पराभव को प्राप्त नहीं हो सकता। क्योंकि महान् सरोवरमें निमग्न पुरुष का दावानल क्या करेगा? कुछ भी नहीं कर सकता हैं ॥४७॥ शीलसे रहित पुरुषके सभी बन्धु और मित्रजन पराङमुख हो जाते है। किन्तु शीलवान् पुरुषके अत्यन्त दुराराध्य शत्रु भी सन्मुख होकर सहायक होते हैं ।।४८। शीलसे श्रेष्ठ कोई बन्धु नहीं, शीलसे श्रेष्ठ कोई मित्र नहीं, शीलसे श्रेष्ठ कोई माता नहीं और शीलसे श्रेष्ठ कोई पिता इस संसारमें नहीं है ।।४९।। शीलके समान जीवका अन्य कोई उपकार नहीं कर सकता है। कहीं अन्य कोई वृक्ष कल्पद्रुमके समान मनोवांछित फलको दे सकता हैं ।।५०॥ आचार्य कहते हैं कि शीलवान् पुरुष ताप (घाम) मे खडा होकरके भी सुखी हैं और शीलका छोडनेवाला व्यक्ति मनुष्योंकी अंगुलियों की छायामें स्थित रहते हुए भी सन्तापको पाता हैं, यह महान् आश्चर्य है ।।५।। उत्तम शीलका धारक पुरुष कभी भी किसीके द्वारा पराभवको प्राप्त नहीं हो सकता है और न किसीके द्वारा तिरस्कृत ही होता है। शीलवान् पुरुषका जीवन ही प्रशंसनीय होता हैं ॥५२॥ व्रत-भंग होने के स्थानका परित्यागी पुरुष ही व्रतको निर्मल पालता है। जो चोरों को दूरसे ही देखकर भाग जाता है, वह चोरोंके द्वारा कहां लूटा जा सकता है ॥५३॥ अब आचार्य शील भंग करनेवाले व्यसनोंसे दूर रहने का उपदेश देते हुए पहले जुआ खेलनेका निषध करते हैशीलवान् पुरुषको नाना अनर्थ करनेवाला द्यूतका त्याग करना ही चाहिए। जैसे विषपानसेजीवनका नाश होता है, उसी प्रकार जुआ खेलनेसे शील का नाश होता हैं ।।५४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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