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________________ अमितगतिकृत. श्रावकाचारः ३८१ सन्तोषो भाव्यते तेन वैराग्यं तेन दृश्यते । संयमः पोष्यते तेन मौनं येन विधीयते ।। १०३ वचोव्यापारतो दोषा ये भवन्ति दुरुत्तराः । ते सर्वेऽपि निर्वार्यन्ते मौनव्रतविधायिना ।।१०४ सागारोऽपि जनो येन प्राप्यते यतिसंयमम् । मौनस्य तस्य शक्यन्ते केन वर्णयितुं गुणाः ।।१०५ जोषेण विशतो रोध: कल्पषस्य विधीयते । बलिष्ठेन महिष्ठेन सलिलस्येव सेतुना ।।१०६ हुङ्कारागुलिखात्कारभ्रूमूर्द्धचलनादिभिः । मौनं विदधता सज्ञा विधातव्या न गृद्धये ॥१०७ सार्वकालिकमन्यच्च मौनं द्वेधा विधीयते । भक्तित शक्तितो भव्यर्मवभ्रमणभीरुभिः ।।१०८ भव्येन शक्तितः कृत्वा मौनं नियतकालिकम् । जिनेन्द्रभवने देया घण्टिका समहोत्सवम् ।।१०९ न सार्वकालिके मौने निर्वाहव्यतिरेकतः । 'उद्यापनं परं प्राज्ञैः किञ्चनापि विधीयते ।।११० आवश्यके मलक्षपे पापकार्ये विशेषतः । मौनी न पीडयते पापैः सन्नद्धः सायकैरिव ॥१११ कोपादयो न संक्लेशा मौनवतफलाथिना । पुर: पश्चाच्च कर्तव्या: सूधते तद्धितः कृतः ॥११२ वाचंयमः पवित्राणां गुणानां हितकारिणाम् । सर्वेषां जायते स्थानं मणीनामिव नीरधिः ११३ मौन रखना विशषकर प्रशसनीय है। रसायनका सेवन सदा हो श्रेष्ठ है, फिर सरोगी होनेपर तो उनका सेवन कैसे श्रेष्ठ नहीं होगा ।।१०।। जो पुरुष मौन धारण करता है, उसका सन्तोष दृढ होता है, उससे वैराग्य भाव दिखाई देता है और उससे संयम पुष्ट होता है ।।१०३।। वचनोंके व्यापारसे जो भयंकर दोष उत्पन्न होते है, वे सब मौन व्रतके धारण करनेवाले पुरुषके द्वारा सहजमें ही निवारण कर दिये जाते है ।। १०४।। जिस मौनव्रतके द्वारा गृहस्थ भी मनुष्य मुनिके संयमको प्राप्त होता है, उस मौनव्रतके गण किसके द्वारा वर्णन किये जा सकते है ।।१०५।। जैसे पुख्ता बने हर महान् बाँधके द्वारा जल रोका जाता है, उसी प्रकार मौनके द्वारा भीतर प्रवेश करते हुए पापोंका निरोध किया जाता हैं ॥१०६।। मौनको धारण करनेवाला पुरुष भोजनकी शुद्धि के लिए हुँकार, अंगुलि-चालन,खात्कार (खंखारना), भ्रकुटी चढाना और शिर हिलाना आदिके द्वारा किसी प्रकारका संकेत न करे ॥१०७।। भवभ्रमणसे भयभीत भव्य पुरुषोंको अपनी शक्तिके अनुसार भक्ति-पूर्वक सर्वकालिक और असार्वकालिक यह दो प्रकारका मौन धारण कर चाहिए । भावार्थ-जीव-पर्यन्तके लिए धारण किया गया मौन सार्वकालिक कहलाता है । अल्प या नियत समयके लिए धारण किया गया मौन असार्वकालिक कहलाता है ।।१०८॥ नियत कालिक मौन पालन करके भव्य पुरुषको भक्तिसे जिनेन्द्र भवनमें महोत्सव करके एक घण्टा देना चाहिए ।।१०९।। सार्वकालिक मौनमें निर्वाहके अतिरिक्त और किसी प्रकारके उद्यापनका कुछ भी विधान ज्ञानियोंने नहीं किया है। भावार्थ-असार्वकालिक मौनव्रतकी पूर्णता होनेपर मन्दिरमें घण्टाका दान करना उसका उद्यापन है। किन्तु सार्वकालिक मौनमें उसका पूर्ण रीतिसे निर्वाह करना ही उद्यापन है ।।११।। जिसप्रकार सदा बस्तर (कवच) आदिसे सन्नद्ध योद्धा बाणोंसे पीडित नहीं होता है, उसी प्रकार सामायिक आदि छह आवश्यक क्रियाओंके करते समय, मल-मत्रके क्षेपणके समय भोजनके समय और विशेषकर मैथन-सेवनादि पापकार्योंके करते समय मौन-धारण करनेवाला पुरुष पापोंसे पीडित नहीं होता है ।। १११।। मौनव्रतके फलार्थी पुरुषको भोजनादिके करनेके पूर्वया पश्चात् क्रोधादिक अथवा किसी प्रकारका संक्लेशादिक नहीं करना चाहिए। क्योंकि कषाय या संक्लेशादि करनेसे मौनव्रतका विनाश हो जाता है।।११।जैसे समुद्र सर्व प्रकारके मणियोका स्थान है, उसीप्रकार वचनका संयम पालनेवाला मौन-धारक पुरुष सभी सुखकारो पवित्र गुणोंका स्थान हो जाता १. मु उद्योतनं। २. मु. सुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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