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________________ ३८२ श्रावकाचार-संग्रह वाणी मनोरमा तस्य शास्त्रसन्दर्भमिता । आदेया जायते येन क्रियते मौनमुज्ज्वलम् ॥११४ पदानि यानि विद्यन्ते वन्दनीयानि कोविदः । सर्वाणि तानि लभ्यन्ते प्राणिना मौनकारिणा ॥११५ निर्मलं केवलज्ञानं लोकालोकावलोकनम् । लीलया लभ्यते येन किं तेनान्यन्न कांक्षितम् ।।११६ रागो निवार्यते येन धर्मो येन विवर्धते । पापं निहन्यते येन संयमो येन जन्यते ।।११७ अनेक जन्मसंबद्धकर्मकाननपावकः उपवासः स कर्तव्यो नीरागीभतचेतसा॥१८ उपेत्याक्षाणि सर्वाणि निवृत्तानि स्वकार्यतः । वसन्ति यत्र स प्रारुपवासोऽमिधीयते ।।११९ स सार्वकालिको जैनैरेकोऽन्योऽसार्वकालिकः । द्विविधः कथ्यते शक्तो हृषीकाश्वनियन्त्रणे ॥१२० तत्राद्यो म्रियमाणस्य वर्तमानस्य चापरः । कालानुसारत: कार्य क्रियमाणं महाफलम् ॥१२१ वर्तमानो मतस्त्रेधा स वर्यो मध्यमोऽधमः । कर्त्तव्यः कर्मनाशाय निजशक्त्यनुगृहकैः ।। १२२ चतुर्णा यत्र भुक्तीनां त्यागो वर्यश्चतुर्विधः । उपवासः सपानीयस्त्रिविधो मध्यमो मतः ।।१२३ मुक्तिद्वयपरित्यागे द्विविधो' गदितोऽधमः । उपवासस्त्रिधाऽप्येष शक्तित्रितयसूचकः ॥१२४ हैं अर्थात् मौन धारण करनेवाले पुरुषको सभी उत्तम गुण स्वयं प्राप्त होते है ॥११३।। जो पुरुष उज्ज्वल निर्दोष मौनका पालन करता हैं, उसकी वाणी शास्त्र-सन्दर्भसे युक्त, मनोहर और सर्वके द्वारा आदरणीय हो जाती है ।।११४॥ संसारमें विद्वानों के द्वारा वंदनीय जितने भी पद हैं, वे सब मौन-धारण करनेवाले प्राणोको प्राप्त होते हैं ।। ११५।। जिस मौनव्रतके द्वारा लोक और अलोकका अवलोकन करनेवाला निर्मल केवलज्ञान लीलामात्रसे प्राप्त हो जाता हैं, उससे अन्य मनोवांछित कौनसी वस्तु नहीं मिलेगी? सर्व ही मिलेगी ।। ११६।। अब आचार्य उपवासका वर्णन करते है-जिसके द्वारा इन्द्रियोंके विषयोंका राग दूर किया जाता है, जिसके द्वारा धर्मकी वृद्धि होती हैं, जिसके द्वारा पाप विनष्ट होते है, जिसके द्वारा संयम उत्पन्न होता हैं और जो अनेक जन्मोंमें बँधे हुए कर्मरूप काननको जलाने के लिए अग्निके समान हैं, ऐसा उपवास राग-रहित चित्तसे व्रती पुरुषको करना चाहिए ॥११७.११८।। जिसमें सर्व इन्द्रियाँ अपने अपने कार्यसे निवृत्त होकर आत्माके समीप निवास करती है, उसे उपवास कहते हैं । ऐसा उपवास ज्ञानी जनोंको करना चाहिए ।। ५१९।। जिन देवोंने इन्द्रियरूप घोडोंके नियन्त्रण करने में समर्थ वह उपवास दो प्रकारका कहा हैं-एक सार्वकालिक और दूसरा असार्वकालिक ॥१२०।। इनमेंसे पहला सार्वकालिक उपवास समाधिसे मरनेवाले पुरुषके कहा गया हैं । और दूसरा असार्वकालिक उपवास विद्यमान पुरुषके कालके नियमानुसार किया जाता हैं और महाफलको देता हैं ।।१२१।। वर्तमान पुरुषके द्वारा किया जानेवाला असार्वकालिक उपवाम तीन प्रकारका माना गया है-उत्तम, मध्यम और अधम । यह तीनों ही प्रकारका उपवास अपनी शक्तिको नहीं छिपा करके कर्मोका नाश करने के लिए व्रतीजनोंको करना चाहिए ।।१२२॥ जिस उपवालमें चारों प्रकारके भोजन का त्याग हो, वह उत्तम उपवास हैं। जिसमें पानी मात्र रखकर शेष तीन प्रकारके आहारका त्याग किया जाय,वह मध्यम उपवास माना गया हैं । जिसमें खाद्य और स्वाद्य इन दो प्रकारके आहारका त्यागकर लेह्य और पेयरूप दो प्रकारका आहार ग्रहण किया जाय, वह अधम उपवास कहा गया है । यह तीनों ही प्रकारका उपवास श्रावककी तीन प्रकारकी शक्तिका सूचक हैं ।।१२३-१२४।। १. मु. त्रिविधो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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