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________________ अमितगतिकृत: श्रावकाचारः ३८३ प्रहरद्वितये भुत्वा समेत्याचार्यसन्निधिम् । वन्दित्वा भक्तितः कृत्वा कायोत्सर्ग यथागमम् ॥१२५ पञ्चाङ्ग प्रणांत कृत्वा गृहीत्वा सूरिवाक्यत । उपवासं पुनः कृत्वा कायोत्सर्ग विधानतः ।।१२६ आचार्य स्तवतः स्तुत्वा वन्दित्वा गणनायकम् । दिनद्वयं ततो नेयं स्वाध्यायासक्तचेतसा ।।१२७ विधाय साक्षिणं सूरि गृह्यमाणः पटीयसा । सम्पद्यते तरामेष व्यवहार इव स्थिरः ॥१२८ सर्वभोगापभोगानां कर्तव्या विरतिस्त्रिधा । शयितव्यं महीपृष्ठे प्रासुके कृतसंस्तरे ।। १२९ विहाय सर्वमारम्भमतंयमविवर्धकम् । विरक्त वेता स्थे यतिनेव पटीया .१३. तृतीये वासरे कृत्वा सर्वमावश्यकादिकम् । भोजयित्वाऽतिथि भक्त्या भोक्तव्यं गहमेधिना ।।१३१ उपवासः कृतोऽनेन विधानेन विरागिणा । हिनस्त्येकोऽपि रेफांसि तमांसीव दिवाकरः ।।१३२ उपवासं विना शक्तो न पर: स्मरमर्दने । सिंहेनैव विदीर्यन्ते सिन्धुरा मदमन्थरा: ।।१३३ उपवासेन सन्तप्ते क्षिप्रं नश्यति पातकम् । ग्रीष्मार्काध्यासिते तोयं कियत्तिष्ठति पल्वले ॥१३४ नित्यो नैमित्तिकश्चेति द्वेधाऽसौ कथितो बुधैः । प्रोषधे समतो नित्यो बहु गऽन्ये व्यवस्थिताः । १३५ अब आचार्य उत्तम उपवास करने की विधि कहते हैं-उपवास करनेके पहले दिन दोपहरके समय भोजन करके, आचार्य के समीप आकर, भक्तिसे उनकी वन्दनाकर, कायोत्सर्ग करके यथाक्रमसे पंचांग नमस्कार करे। पुनः आचार्य के वचनोंसे उपवासको ग्रहण कर और पुनः कायोत्सर्ग करके विधिपूर्वक आचार्यकी स्तुति करके तथा गणनायककी वन्दना करके स्वाध्यायमें चित्त लगाकर दो दिन व्यतीत करना चाहिए ।।१२५-१२७।। भावार्थ-यहाँपर जो दो दिन स्वाध्यायपूर्वक बिताने का निर्देश किया हैं, उसका अभिप्राय यह है कि एक दिन में आठ पहर होते हैं । पूर्वोक्त रीतिसे उपवास करनेवाला पर्वके पूर्ववर्ती दिनके मध्यान्ह काल में भोजन करके भोजनका परित्याग किया । पुनः पर्वके दिन पूरे आठ पहर भोजन नहीं किया। पुनः पर्वके अगले दिन मध्यान्ह कालमें भोजन किया। इस प्रकार पर्वके पूर्ववर्ती दिनके दो पहर,रात्रिके चार पहर पर्वके दिनके आठ पहर और अगले दिनके दो पहर इस प्रकार सोलह पहरतक अन्न-जलका त्याग रहनेसे दो दिन धर्मध्यानपूर्वक 'बतानेका आचार्यने उल्लेख किया है। आचार्यको साक्षी करके चतुर पुरुषके द्वारा ग्रहण किया गया उपवास अति स्थिरताको प्राप्त होता है। जैसे कि बड़े पुरुषको साक्षीमे किया गया व्यवहार स्थिर होता हैं । उपवासके दिन सर्व प्रकारके भोग और उपभोगोंका मन वचन कायसे त्याग करना चाहिए भूतल पर प्रासुक बिस्तर बिछाकर सोना चाहिए, और असंयमका बढानेवाला सर्व आरम्भ छोडकर विरकन चित्त हो चतुर पुरुषको साधके समान रहना चाहिए । तीसरे दिन सर्व आवश्यक क्रिया आदिको करके और भक्तिके साथ अतिथिको भोजन करा करके गृहस्थको स्वयं भोजन करना चाहिए । इस प्रकारकी विधिसे विरागी पुरुषके द्वारा किया गया एक भी उपवास अनेक भवके पापोंका नाश कर देता है, जैसे कि सूर्य अन्धकारका नाश कर देता है ।। १२८-१३२।। उपवासके विना अन्य कोई व्रतादिक कामदेवके मर्दन करने में समर्थ नहीं हैं । क्योंकि मदसे उन्मत्त हाथी सिंहके द्वारा ही विदीर्णं किये जाते है ।। १३३।। उपवाससे तपाये गये पुरुष के पाप शोघ्र नष्ट हो जाते हैं । ग्रीष्म ऋतुके सूर्यसे तपाय गये भूतलपर जल कितनी देर ठहर सकता है ।।१३४।। ज्ञानियोंने नित्य और नैमित्तिकसे भेदसे यह उपवास दो प्रकारका कहा हैं। अष्टमी और चतुर्दशी पर्वके दिन किया जानेवाला नित्य उपवास कहा जाता है और अन्य दिन१. मु. भूतले। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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