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________________ ३८४ श्रावकाचार-संग्रह उपवासा विधीयन्ते ये पञ्चम्यादिगोचराः । उक्ता नैमित्तिकाः सर्वे से कर्मक्षपणक्षमाः ॥१३६ गुरुतरकर्मजालसलिलं भवभक्षकरं बहुपरिणाममेघनिवहप्रसवं प्रसभम् । क्षपति सर्वमुन उपवासपयोजपतिविरचित वृति निखिलदेहितडागततेः ॥१३७ जनयति यो विधूय विपदं रमसाऽपचिति'घटयति सम्पदं त्रिदशमानववर्गनुताम् । विधिविहतस्य तस्य पुरुषः श्रुतकेवलिनो वदति फलं न कोऽप्यनशनस्य परो भुवने ।।१३८ रचयति यस्त्रिधा व्रतमिदं महितं महितैरमितगतिश्चतुर्विधमनन्यमनाः पुरुषः । भवशतसञ्चितं कलिलमेष निहत्य पुन: शिवपदमेति शाश्वतमपास्तसमस्तमलम् ॥१३९ इत्युपासकाचारे द्वादशः परिच्छेदः । • त्रयोदशः परिच्छेदः शशाङ्कामलसम्यक्त्वो वताभरणभूषितः । शीलरत्नमहाखानिः पवित्रगुणसागरः ।।१ ऋजुभूतमनोवृत्तिर्गुरुशभूषणोद्यतः । जिनप्रवचनाभिज्ञः पावकः सप्तधोत्तमः ॥२ निसर्गजरुचो जन्तावेकान्तरुचिराजिते । असहाये महाप्राज्ञे सदायतनसेवके ।।३ विशेषोंपर किया जानेवाला उपवास नैमित्तिक कहलाता है, जो कि अनेक प्रकारका शास्त्रोंमें बताया गया हैं ।।१३५॥ पंचमी, एकादशी आदिके दिन जो उपवास किये जाते है,वे नैमित्तिक कहे गये हैं। ये सभी नित्य-नैमित्तिक उपवास कर्मोंका क्षय करने में समर्थ है ॥१३६॥ संवरको धारण करनेवालेका समस्त प्राणियोंरूप तालाबोंकी पंक्तिमे भरे हुए संसाररूप वृक्षको उत्पन्न करनेवाले, नाना प्रकारके कषाय परिणामरूप मेघोंसे उत्पन्न हुए एसे अतिगुरु कर्मजाल रूप उग्र जलको उपवासरूप सूर्य शं न ही सुखा देता है ।।१३७।। जो उपवास वेगसे संचित हुई विपत्तियोंका विनाशकर देव और मनुष्य वर्गकी उत्तम सम्पदाको शीघ्र घटित करता है, ऐसे विधिपूर्वक किये गये उपवासके फलको श्रुतकेवलीके सिवाय और कोई पुरुष इस लोकमे नहीं कह सकता है ।।१३८ । इस प्रकार महापुरुषोंके द्वारा पूजित है,इस चतुर्विध व्रतको मन वचन काय द्वारा जो अमितगति पुरुष एकाग्रचित्तसे धारण करता है,वह सैकडों भवोंको संचित पापको विनष्ट करके पुनः सर्वमलोंसे रहित होकर शाश्वत शिवपदको प्राप्त करता है ।।१३९।। इस प्रकार अमितगति विरचित उपासकाध्ययनमें बारहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ। अब आचार्य श्रावकके विशेष गुणोंका वर्णन करते है शंकादि दोषोंसे रहित चन्द्रमाके समान निर्मल सम्यक्त्वका धारक, व्रतरूप आभरणसे भूषित, शीलरूप रत्नकी महाखानि, पवित्र गुणोंका सागर,सरल मन और बुद्धिवाला, गुरुकी सेवा शुश्रूषा करने में उद्यत,तथा जिन-आगमका ज्ञाता, ऐसे सात प्रकारका उत्तम श्रावक होता है ॥१-२॥ आगे कहे जानेवाले गुणोंसे युक्त पुरुषमें सम्यग्दर्शन निश्चय रूपसे रहता है-जिसके तत्त्वोंकी स्वभाव-जनित श्रद्धा हो, जो आत्मप्रतीतिपर एकान्त दृढ रुचिसे विराजमान हो, परको सह'यता१. मु.-प्रभवं । २. म. संवृतेः । ३. मु.-सोपचिति । ४.-मताम् । ५. मु. धनं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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