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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः फलाय जायते पुंसो न चारित्रमशोधितम् । मलग्रस्तानि सस्यानि कीदृशं कुर्वते फलम् ॥८० वाचना पृच्छनाऽऽनुप्रेक्षा धर्मदेशना । स्वाध्यायः पञ्चधा कृत्यः पञ्चमो गतिमिच्छता । ८११ तपोऽन्तरानन्तरभेदभिन्ने तपोविधो किञ्चन पापहारि । स्वाध्यायतुल्यं न विलोक्यतेऽन्यद्धृषीकदोषशमप्रवीणम् ॥८२ स्वाध्याय मत्यस्य चलस्वभावं न मानसं यन्त्रयितुं समर्थः । शक्नोति नोन्मूलयितुं प्रवृद्धं तमः परी भास्करमन्तरेण ॥ ८३ यां स्वाध्यायः पापहानि विधत्ते कृत्वैाम्यं नोपवासः क्षमस्ताम् । शक्तः कर्तु संयतानां ' न कार्यं लोके दृष्टोऽसं 'यतो दुष्टचेष्टः || ८४ विज्ञातनिःशेषपदार्थ जातः कर्मास्रवद्वारपिधानकारी । Jain Education International भूत्वा विधत्ते स्वपरोपकारं स्वाध्यायवर्ती बुधपूजनीयः । ८५ बुद्धतत्त्वो विधुनोति सद्यो विध्वंसिताशेषहृषीकदोषः । तपोविधानंर्भवको टिलक्षर्नून तदज्ञो न धुनोति कम ८६ नहीं की गई हैं, ऐसा चारित्र पुरुषको फल नहीं देता है। क्योंकि मलसे दूषित धान्य उत्तम फलको कैसे उत्पन्न कर सकता हैं ||८०| इस प्रकार प्रायश्चित तपका वर्णन किया । अब आचार्य स्वाध्याय तपका वर्णन करते हैं- पचमीगति मुक्तिको चाहनेवाले पुरुषोंको वाचना, पृच्छना, आम्नाय, अनुप्रेक्षा और धर्मदेशनारूप पाँच प्रकारका स्वाध्याय करना चाहिए || ८१|| विशेषार्थ आगमके निर्दोष शब्द और अर्थका भव्योंको पढाना - सिखाना वाचवा स्वाध्याय हैं । संशय के दूर करने के लिए तत्त्वका रहस्य गुरुजनोंसे पूछना पृच्छना स्वाध्याय है । आगमके पाठका शुद्ध उच्चारण करना कंठस्थ याद करना आम्नाय स्वाध्याय है । पदार्थ के शास्त्र - प्ररूपित स्वरूपका बार-बार चिन्तवन करना अनुप्रेक्षा स्वाध्याय हैं । दूसरोंके लिए धर्मका उपदेश देना धर्मदेशना नामक स्वाध्याय हैं । इन पाँच प्रकारोंमें से जहाँ जब जो संभव एवं आवश्यक हो, वहां पर उस स्वाध्यायको करते रहना चाहिए | अन्तरंग और बाह्य के भेदसे भिन्न बारह प्रकारके तपो विधान में पापोंका दूर करनेवाला और इन्द्रियोंके दोषोंके प्रशमन करनेमें प्रवीण ऐसा स्वाध्याय के समान अन्य और कोई तप नहीं है ।।८२|| इस चंचल स्वभाववाले मनको नियंत्रित करनेके लिए स्वाध्यायको छोडकर अन्य कोई तप समर्थ नहीं हैं । बढे हुए अन्धकारको उन्मूलन करने के लिए सूर्यके अतिरिक्त और कौन समर्थ हो सकता हैं || ८३ || एकाग्र होकर किया हुआ स्वाध्याय जितनी पाप हानिको करता हैं, उतनी पाप हानिको करने के लिए उपवास समर्थ नहीं है । क्योंकि संयत पुरुषोंके कार्यको करने के लिए लोकमें दुष्ट चेष्टावाला असंयत मनुष्य समर्थ नहीं हो सकता है । प्रतियों में संवृत पाठ भी पाया जाता है, तदनुसार संबर-मुक्त पुरुषोंके कार्यको संवर - रहित दुष्ट चित्त पुरुष नहीं कर सकता, एसा अर्थ होता है || ८४॥ स्वाध्याय करनेवाला पुरुष श्रुतज्ञानके बलसे समस्त पदार्थ समूहको जानता हैं, कर्मोंके आनेके द्वारोंको बन्द करता हैं, तथा अपना और पराया उपकार करता है, अतएव वह विद्वज्जनोंके द्वारा पूजनीय होता हैं ।। ८५ । जो तत्त्वों का ज्ञाता है और जिसने इन्द्रियोंके समस्त दोषोंको विश्वस्त कर दिया हैं, एसा ज्ञानी पुरुष शीघ्र ( एक अन्तर्मुहूर्त में ) जितने कर्मका विनाश करता हैं, उतने ही कर्मका विनाश अज्ञानी पुरुष लाखों करोडों भवोंमें सहस्रों १. मु. सवृतानां । २. मु. असंवृतो । ३९१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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