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________________ ३९२ श्रावकाचार-संग्रह निरस्तसर्वाक्षकषायवृत्तिविधीयते येन शरीरिवर्गः । प्ररूढजन्माकुरशोषपूषा स्वाध्यायतोऽन्योस्ति ततो न योगः ॥८७ गुणाः पवित्राः शमसंयमाद्या वियोधहीनाः क्षणतश्चलन्ति । कालं कियन्तं तलपुष्पपूर्णास्तिष्ठन्ति वृक्षा: क्षतमूलबन्धाः ।।८८ जानात्यकृत्यं न जनो न कृत्यं जैनेश्वरं वाक्यमबुध्यमानः ।। करोत्यकृत्यं विजहाति कृत्यं ततस्ततो गच्छति दुःखमुग्रम् ।।८९ अनात्मनीनं परिहतुकामा गृहीतुकामा: पुनरात्मनीनम् । पठन्ति शश्वज्जिननाथवाक्यं समस्तकल्याणविधायि सन्तः ।।९० सुखाय ये सूत्रमपास्य जैनं मूढाः प्रयन्ते वचनं परेषाम् । तापच्छिदे ते परिहत्य 'तोयं भजन्ति कल्पक्षयकालन्हिम् ॥९१ विहाय वाक्यं जिनचन्द्रदृष्टं परं न पीयूषमिहास्ति किञ्चित् । मिथ्याशा वाक्यमपास्य नूनं पश्यामि नो किञ्चन कालकूटम् ।।९२ विधीयते येन समस्तमिष्टं कल्पद्रुमेनेव महाफलेन । आवयं या विश्वजनीनवृत्तिर्मुक्त्वा परं कर्म जिनागमोऽसौ ।।९३ तपों विधानोंके द्वारा निश्चयसे नहीं कर सकता हैं।८६।। जिस स्वाध्यायके द्वारा प्राणिवर्ग समस्त इन्द्रियों और कषायोंकी प्रवृत्तिसे रहित किया जाता हैं और जो बढ़ते हुए भवाङकुरके सुखानेके लिए सूर्य सदृश हैं, ऐसे स्वाध्यायसे अन्य और कोई योग (ध्यान) नहीं है ।।८७ । कषायोंकी मन्दता रूप प्रशम भाव और संयम आदिक जितने भी पवित्र गुण है, वे सब यदि ज्ञानसे रहित हैं, तो क्षण मात्रमें चलायमान हो जाते हैं। जिन वृक्षोंका मूल जड-बन्धन विनष्ट हो गया हैं, ऐसे पत्र-पुष्पोंसे परिपूर्ण भी वृक्ष कितने समय तक खडे रह सकते है ।। ८८।। भावार्थसर्व गुणोंका मूल आधार ज्ञान है, उसके विना अन्य गुण अधिक कालतक ठहर नहीं सकते। अतः स्वाध्यायके द्वारा ज्ञानार्जन करना आवश्यक हैं। जिनराजके कहे वचनोंको नहीं जाननेवाला मनुष्य कृत्य (करने योग्य ) और अकृत्य (नहीं करने योग्य) को नहीं जानता हैं इसलिए वह अकृत्य कर्मको करता है और कृत्य कार्यको छोडता है। और इसीसे वह उग्र दुःखको प्राप्त होता है ।।८९।। जो सन्त पुरुष आत्माके अकल्याणकारी मिथ्यात्वादिको छोडनेके इच्छुक हैं, तथा आत्माके कल्याणकारी सम्यक्त्वादिको ग्रहण करनेके अभिलाषी है, वे सर्वप्रकारके कल्याणोंको करनेवाले जिनेन्द्रदेवके वचनोंको निरन्तर पढते हैं ॥९॥ जो मूढजन सुख पानेके लिए जैन सूत्र (आगम) को छोडकर अन्य मिथ्यादष्टियोंके वचनोंका आश्रय लेते हैं, वे मानो अपने सन्तापको दूर करने के लिए जलको छोडकर कल्पान्तके समयवाली प्रलयकालकी अग्निका सेवन करते हैं ।।९१।। जिनेन्द्रचन्द्र के द्वारा उपदिष्ट वाक्यको छोडकर इस लोकमें अन्य कुछ भी उत्तम अमृत नहीं हैं । तथा मिथ्यादृष्टियोंके वाक्यको छोडकर निश्चयसे में अन्य कोई कालकूट विषको नहीं देखता हूँ ।।९२।। जिस जिनागमके अभ्याससे महान् फलदायक कल्पवृक्ष के समान समस्त इष्ट अर्थ प्राप्त होते हैं, ऐसे इस विश्व-कल्याणकारी जिनागमका अन्य सर्व कार्य छोडकर निरन्तर अभ्यास करना चाहिए ॥९३।। इस प्रकार स्वाध्यायतप१. मु. परिमुच्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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