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श्रावकाचार-संग्रह
निर्वतिर्दीयते तेन तेन धर्मो विधास्यते । आगमोऽध्याप्यते तेन क्रियते तेन वा न किम् ॥६९ समाधिविहितस्तेन जिनाज्ञा तेन पालिता। धर्मो विस्तारितस्तेन तीयं तेन प्रतितम् ।।७० दुष्प्रापं तीर्थकर्तृत्वं त्रैलोक्यक्षोभणक्षमम् । प्राप्यते व्यावृतेर्यस्यास्तस्या: कि न परं फलम् ॥७१ परस्यापोह्यते दुःखं सदा येनोपकुर्वता । सम्पद्यते कथं तस्य क्व कार्य कारणं विना ॥७२ सेव्यो दीर्घायुरादों नीरोगो निरुपद्रवः । वदान्यः सुन्दरो दक्षो जायते स प्रियंवदः ॥७३ स धामिक: स सदष्टिः स विवेकी स कोविदः । स तपस्वी स चारित्री व्यावत्ति विदधाति यः॥७४ आश्रित्य भक्तितः पूरि रत्नत्रितयभूषितम् । प्रायश्चित्तं विधातव्यं गृहीत्वा व्रतशुद्धये । ७५ न सदोषः क्षमः कर्तृ दोषाणां व्यपनोदनम् । कर्दमाक्तं कथं वास: कर्दमेण विशोध्यते ॥७६ बोषमालोचितं ज्ञानी सूरिशो व्यपोहितुम् । अज्ञानेनैव वैद्येन व्याधिः ववापि चिकित्स्यते । ७.
आलोच्यर्जुस्वभावेन ज्ञानिने संयतात्मने । तदीयवाक्यतः कार्य प्रायश्चित्तं मनीषिणा ॥७८ प्राञ्जलीभूय कर्तव्या सूरेरालोचना त्रिधा । विपाके दुःखदं कार्य वक्रभावेन निमितम् । ७९ विनय, नय आदि सभी कुछ देता हैं । क्योंकि वैयावृत्त्यसे स्वास्थ्य-लाभ करनेपर ही संयम-पालनादि संभव है ।।६८। जिस पुरुषके द्वारा वैयावृत्य करनेसे निराकुलता प्रदान की जाती हैं,उसके द्वारा धर्म साधन कराया जाता है, और आगमका पठन-पठन कराया जाता है। अथवा अधिक क्या कहें-वैयावृत्य करनेवालेके द्वारा क्या नहीं कराया जाता? अर्थात् सभी उत्तम कार्य कराये जाते हैं ॥६९॥ जिस पुरुषने साधुजनोंकी वैयावत्य की, उसने उन्हें समाधि कराई, उसने जिनेन्द्रकी आज्ञाका पालन किया उसने धर्मका विस्तार किया और उसने तीर्थका प्रवर्तन किया ।। || जिस वैयावृत्त्यके द्वारा तीन लोकको क्षोभित करने वाला अत्यन्त कष्टसे पाने योग्य ऐसा तीर्थंकरपना प्राप्त होता हैं, उस वैयावृत्त्य करनेका अन्य क्या फल नहीं प्राप्त हो सकता है? अर्थात् सभी कुछ प्राप्त हो सकता हैं ॥७१।। सदा परोपकार करनेवाले जिस पुरुषके द्वारा अन्यके दुःख दुर । जाते है. उसके द:ख कैसे प्राप्त हो सकता है? अर्थात कभी वह दुखी नहीं हो सकता। क्योंकि कारणके विना कार्य कहाँ हो सकता है ।।७२॥ वैयावृत्त्य करनेवाला पुरुष सत्पुरुषों के द्वारा सेव्य होता है, दीर्घायु होता है, आदरणीय, नीरोग, उपद्रव-रहित, उदार, प्रियभाषी,सुन्दर और चतुर होता हैं ।।७३।। जो पुरुष वैयावृत्त्य करता है, वह धर्मात्मा है, वह सम्यग्दृष्टि है, वह विवेकी है, वह विद्वान् हैं, वह तपस्वी हैं और यह चारित्रका धारक हैं ।।७४।। इस प्रकार वैयावृत्यका वर्णग किया।
अब आचार्य प्रायश्चित्त तपका वर्णन करते है-व्रतको ग्रहण करके उसमें लगनेवाले दोषोंकी शुद्धिके लिये रत्नत्रयसे विभूषित आचार्यका आश्रय लेकर भक्तिसे अपने दोषोंका प्रायश्चित्त करना चाहिए। ७५।। जो आचार्य स्वयं ही दोष युक्त है, वह अन्यके दोषोंको दूर करने में समर्थ नहीं है। क्योंकि कीचडसे लिप्त वस्त्र कीचडसे कैसे शुद्ध किया जा सकता हैं? अर्थात कभी भी शुद्ध नहीं किया जा सकता हैं ।।७६॥ ज्ञानवान् आचार्य ही शिष्यके द्वारा कहे गये दोषको दूर करनेमें समर्थ है । क्योंकि अज्ञानी वैद्य के द्वारा कहीं पर भी व्याधिकी चिकित्सा नहीं की जा सकती है ।।७७।। इसलिए ज्ञानी संयमी आचार्य के आगे सरल भावसे अपने दोषोंकी आलोचना करके उनके वचनानुसार मनीषी मुनि और गृहस्थोंको प्रायश्चित्त करना चाहिये ।।७८।। मन वचन कायको सरल करके अंजलि बाँधकर आचार्य के आगे आलोचना करना चाहिए। क्योंकि कुटिल भावसे किया गया कार्य परिणामके समय दुःखदायी होता है ।।७१।। प्रायश्चित्तसे जिसके दोषोंकी शुद्धि
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