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________________ अमितगतिकृतः श्रावकाचारः ३८९ विनयेन विना पुंप्तो न सन्ति गुणसम्पदः । न बोजेन विना क्वापि जायन्ते सस्यजातयः ॥५६ प्रश्रयेण विना लक्ष्मी यः प्रार्थयति दुर्मनाः । स मूल्येन विना नूनं रत्नं स्वीकर्तुमिच्छति ॥५७ का सम्पदविनीतस्य का मंत्री चलचेतसः । का तपस्या विशीलस्य का कीति: कोपत्तिनः ॥५८ न शठस्येह यस्यास्ति तस्यामुत्र कथं सुखम् । न कच्छे कर्कटी यस्य गृहे तस्य कुतस्तनी ॥५२ लाभालाभो विबुद्धयेति भो विनीताविनीतयोः । विनीतेन सदा भाष्यं विमुच्याविनयं त्रिधा ॥६. कृतान्तरिव तुर्वारः पीडितानां परीषहैः । वयावृत्त्यं विधातव्यं मुमुक्षूणां विमुक्तये ।६१ दुभिक्षे नरके धारे चौरराजाद्युपद्रुते । कर्मक्षयाय कर्तव्या व्यावृतिततिनाम् ॥६२ आचार्यऽध्यापके वृद्ध गणरक्षे प्रवर्तके । शैक्षे तपोधने सङ्घ गणे ग्लाने दशस्वपि । ६३ प्रासुकैरोषधेर्योग्यैर्मनसा वपुषा गिरा विधेया व्यावृतिः सद्धिर्भवभ्रान्ति जिहासुभिः ॥६४ तपोभिर्दुष्करै रोग: पीड्यमानं तपोधनम् । यो दृष्ट्वोपेक्षते शक्तो निर्धर्मा न ततः परः ॥६५ गृहस्थोऽपि यति यो वंयावृत्त्यपरायणः । वैयावयविनिर्मुक्तो न गृहस्थो न संयतः ।।६६ वयावृत्त्यपरः प्राणी पूज्यते संयतैरपि । लभते न कुत: पूजामुषकारपरायणः॥६७ संयमो दर्शनं ज्ञानं स्वाध्यायो विनयो नयः । सर्वेऽपि तेन दीयन्ते वैयावृत्यं तनोति यः ।।६८ का कारण हैं और विनय बुद्धिका भी कारण है।।५५।। विनयके विना पुरुषको गुणरूप सम्पदा प्राप्त नहीं होती हैं, जैसे बीजके बिना कहीं भी धान्यकी जातियाँ उत्पन्न नहीं होती है ॥५६॥ जो दुर्वृद्धि पुरुष विनयके विना लक्ष्मीको चाहता हैं, वह निश्चयसे मूल्यके विना ही रत्नको पानेको इच्छा करता है ।।५७॥ अविनीत अर्थात् विनय-रहित पुरुष के सम्पदा कहां? चंचल चित्त मनुष्य की मित्रता कैसी? शील-रहित पुरुषके तपस्या कहाँ और क्रोधी पुरुषकी कीर्ति कैसे संभव हैं ।।५८।। जिस शठ पुरुषके इस लोकमें सन्तोष रूप सुख नहीं हैं उसके परलोकमें सुख कहाँसे प्राप्त हो सकता हैं? जिसकी कछवाडी में ककडी नहीं है, उसके घर में वह कहांसे हो सकती है ॥५९।। इसलिए हे भक्त पुरुषो, विनयवान् और अविनयीके इस प्रकारके लाभ और अलाभको जान करके अविनयको त्रियोगसे छोडकर सदा विनीत रहना चाहिए॥६०। इस प्रकार विनयका वर्णन किया। अब आचार्य वैयावृत्त्य तपका वर्णन करते हैं यमराजके समान दुनिवार परीषहोंसे पीडित मोक्षाभिलाषो साधुजनोंकी वैयावृत्त्य मोक्ष-प्राप्तिके लिए करना चाहिए ॥६॥ दुभिक्षके समय, मारीके आनेपर, रोगके होनेपर तथा चोर, राजा आदिके उपद्रव होनेपर कर्मक्षयके लिए व्रती पुरुषोंकी वैयावृत्त्य करना चाहिए ।।६२।। संसारके परिभ्रमणके त्यागकी इच्छा रखनेवाले सज्जन पुरुषोंको आचार्य, उपाध्याय, वृद्ध मुनि, गणरक्षक, प्रवर्तक, शंक्ष्य, तपस्वी, संघ, गण और ग्लान (रोगी) साधु, इन दशों ह प्रकारके साधुओंकी योग्य प्रासुक औषधियोंके द्वारा मन वचन और कायसे वैयावृत्त्य करनी चाहिए ।।६३-६४।। सामर्थ्यवान् हो करके भी जो पुरुष तपोंसे और दुष्कर रोगोंसे पीडित तपोधन साधुको देखकर उपेक्षा करता है, अर्थात् उनको वैयावृत्त्य नहीं करता हैं, उससे अन्य कोई अधर्मी नहीं हैं ॥६५।। वैयावृत्त्यमें तत्पर गृहस्थ भी साधुके समान जानना चाहिए । जो वैयावृत्त्यसे रहित हैं, वह पुरुष न गृहस्थ है और न साधु ही हैं ॥६६।। वैयावृत्त्य करनेवाला प्राणी संयमी पुरुषोंके द्वारा भी पूजा जाता है। दूसरेके उपकारको करनेवाला पुरुष पूजाको कैसे नहीं पाता हैं? अर्थात् अवश्य ही पूजाको पाता हैं ।। ६७।। जो पुरुष वैयावृत्य करता है, वह संयम दर्शन ज्ञान स्वाध्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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