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________________ श्रावकाचार-संग्रह संभूसिऊण चंदद्धचंदवन्यवरायलाईहिं । मत्तादामेहि तहा किकिणिजालेहि विविहेहि ।। ३९९ छत्तहिं चामरेहि य दप्पण-भिगार-तालवट्टहिं । कलसेहि पुप्फवडिलिय-सुपइट्टय-दीवणिवहेहि।।४०० एवं रयणं काऊण तओ अब्भंतरम्मि भागम्मि । रइऊण विविहभडेहि वेइयं चउसु कोणेसु ।। ४०१ इंदो तह दायारो पासुयसलिलेण धारणादिण्हे' । पक्खालिऊण देहं पच्छा भोत्तूण महुरणं ।।४०२ उववासं पुण पोसहविहिणा गहिऊण गुरुसयासम्मि। णव-धवलवत्थभूसो सिरिखंडविलित्तसन्वंगो।। आहरण-वासियाईहिं भूसियंगो सगं सबुद्धीए । सक्कोहमिइ वियप्पिय विसेज्ज जागावणि इंदो ४०४ पुन्व॒त्तवेइमज्जे लिहेज्ज चण्णण पंचवण्णण । पिहुकणियं पइट्टाकलावविहिणा सुकंदुत्थं ॥ ४०५ रंगावलि च मज्झे ठविज्ज सियवत्थपरिवुडं पीठं। उचिदेसु तह पइट्ठोवयरणवव्वं च ठाणेसु।। ४०६ एवं काऊण तओ ईसाणदिसाए वेइयं दिव्वं । रहऊण व्हवणपीठ तिस्से मज्झम्मि ठावेज्जो॥४०७ अरुहाईणं पडिमं विहिणा संठाविऊण तस्सुरि । धूलोकलसहिसेयं कराविए सुत्तहारेण ।। ४०८ वत्थादियसम्माणं कायव्वं होदि तस्स सत्तीए। * पोक्खणविहिं च मंगलरवेण कुज्जा तओ कमसो।। नेत्राकर्षक वस्त्रोंसे निर्मित चन्द्रकान्तमणि तुल्य चतुष्कोण चंदोवेको तानकर चन्द्र, अर्धचन्द्र, बुद्बुद, वराटक ( कौडी ) आदिसे तथा मोतियोंकी मालाओंसे, नाना प्रकारकी छोटी घण्टियोंके समूहसे, छत्रोंसे, चमरोंसे, दर्पणोंसे, भङ्गारोंसे, तालवन्तोसे, कलशोंसे, पुष्प-पटलोंसे, सुप्रतिष्ठक ( स्वस्तिक ) और दीप-समूहोंसे आभूषित करे । इस प्रकारकी रचना करके पुनः उस चबूतरेके आभ्यन्तर भागमें चारों कोणोंमें विविध भाँडों (बर्तनो) से वेदिका बनाना चाहिए।।३९३-४०१।। धारणाके दिन अर्थात् प्रतिष्ठा करते समय उपवास ग्रहण करनेके पहले इन्द्र (प्रतिष्ठाचार्य)ओर दातार (प्रतिष्ठा-कारापक)प्रासुक जलसे देहको प्रक्षालनकर अथोंत् स्नानकर तत्पश्चात् मधुर अन्नको खाकर, पुनः गुरुके पासमें प्रोषधविधिसे उपवासको ग्रहणकर, नवीन, उज्ज्वल श्वेत वस्त्रोंसे विभूषित हो, श्रीखण्ड चन्दनसे सर्व अंगको लिप्तकर, आभरण और वासिका (सुगधित द्रव्य या चूर्ण आदि) से विभूषित-अंग होकर, अपने आपको अपनी बुद्धिसे में इन्द्र हूँ ऐसा संकल्प करके वह इन्द्र (और प्रतिष्ठाकारक) यज्ञावनि अर्थात् प्रतिष्ठामंडपमें प्रवेश करे ॥४०२-४०४।। प्रतिष्ठा-मंडपमें जाकर तत्रस्थ पूर्वोक्त वेदिकाके मध्यमें पंच वर्णवाले चूर्णके द्वारा प्रतिष्ठाकलापकी विधिसे पथु अर्थात् विशाल कणिकावाले नील कमलको लिखे और उसमें रंगावलिको भरकर उसके मध्य में श्वेत वस्त्रसे परिवृत पीठ अर्थात् सिंहासन या ठौनाको स्थापित कर तथा प्रतिष्ठामें आवश्यक उपकरण द्रव्य उचित स्थानोंपर रखे। ४०५-४०६।। इस प्रकार उपर्युक्त कार्य करके पुन: ईशान दिशामें एक दिव्य वेदिका रचकर, उसके मध्यमें एक स्नान-पीठ अर्थात् अभिषेकार्थ सिंहासन या चौकी वगैरहको स्थापित करे । और उसके ऊपर विधिपूर्वक अरहंत आदिकी प्रतिमाको स्थापित कर सूत्रधार अर्थात् प्रतिमा बनानेवाले कारीगरके द्वारा धूलिकलशाभिषेक करावे । तत्पश्चात् उस सूत्रधारका अपनी शक्तिके अनुसार वस्त्रदिकसे सन्मान करना चाहिये । तत्पश्चात् क्रमशः प्रोक्षणविधिको मांगलिक वचन गीतादिसे करे ।। धूलीकलशाभिषेक और प्रोक्षणविधिके जानने के लिए परिशिष्ट देखिए) ।।४०७-४०९। तत्पश्चात् आकर-शुद्धिके १ इ दियह, झ ध दियहे, ब प दियहो । २ पंचवर्णचूर्ण-श्वेतमुक्ताचूर्ण, पीत-हरिद्रपीतमणिचूर्ण, हरित-वैड्यरत्नचूर्ण, रत्न-माणिक्य-ताम्रमणिचूर्ण, कृष्ण-गरुत्मणिचूर्ण, ( वसुबिन्दु प्रतिष्ठापाठ ) ३ इ झ ध फ सुकंदुटुं, ब सुकंदुळं । नीलोत्पलमित्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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