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________________ वसुनन्दि-प्रावकाचार ४६५ इंद्र-लक्षण देश-कुल-जाइसुद्धोणिरुवम-अंगो विसुद्धसम्मत्तो। पढमाणिओयकुसलो पइट्टलक्खणविहिविदण्णू ।। सावयगुणोववेदो उवासयज्झयणसत्थथिरबुद्धी । एव गुणो पइट्ठाइरिओ जिणसासणे भणिओ ॥ ३८९ प्रतिमा-विधान * मणि-कणय-रयण-रुप्पय-पित्तल-मुत्ताहलोवलाईहिं । पडिमालक्खणविहिणा जिणाइपडिमा घडाविज्जा। ३९० बारह-अंगंगी जा' दंसणतिलया चरित्तवत्थहरा। चोद्दहपुवाहरणा ठावेयव्वा य सुयदेवी ।। ३९१ अहवा जिणागमं पुत्थएम सम्म लिहाविऊण तओ। सुहतिहि-लग्ग मुहुत्ते आरंभो होइ कायव्वो। ३९२ प्रतिष्ठा-विधान अटुवसहत्थमेत्तं भूमि संसोहिऊण जइणाए। तस्सुवरि मंडओ पुण कायव्वो तप्पमाणेण ।। ३९३ चउतोरण-चउदारोवसोहिओ विविहवत्थकयभूसो। धुन्वंतधय-वडाओ णाणापुष्फोवहारड्ढो॥३९४ लंबंतकुसुमदामो वंदणमालाहिभूसियदुवारो। दारुवरि उहयकोणेमु पुण्णकलसेहि रमणीओ।। ३९५ तस्स बहुमज्झदे मे पइट्ठसत्थम्मि वुत्तमाणेण । समचउरंसं पीठं सव्वत्थ समं च काऊण ।। ३९६ चउसु वि दिसासु तोरण-वंदणमालोववेददारणि। णंदावत्ताणि तहा दिढाणि रइऊण कोणेसु॥३९७ पडिचोणणेत्तपट्टाइएहि वहिं बहुविवेहिं तहा उल्लोविऊण उरि चंदोवयमणिविहाणेहि ।। ३९८ ॥ ३८७ जो देश, कुल और जातिसे शुद्ध हो, निरुपम अंगका धारक हो, विशुद्ध सम्यग्दृष्टि हो, प्रथमानुयोगमें कुशल हो, प्रतिष्ठाको लक्षण-विधिका जानकर हो, श्रावकके गुणोंसे युक्त हो, उपासकाध्ययन (श्रावकाचार) शास्त्रमें स्थिरबुद्धि हो, इस प्रकारके गुणवाला जिनशासनमें प्रतिष्ठाचार्य कहा गया है ।। ३८८-३८९ ।। मणि, स्वर्ण, रत्न, चाँदी, पीतल, मुक्ताफल (मोती) और पाषाण आदिसे प्रतिमाकी लक्षणविधिपूर्वक अरहंत, सिद्ध आदिकी प्रतिमा बनवाना चाहिए ॥३९०।। जो श्रुतज्ञानके बारह अंग-उपांगवाली है, सम्यग्दर्शनरूप तिलकसे विभूषित है, चारित्ररूप वस्त्रकी धारक है, और चौदह पूर्वरूप आभरणोंसे मंडित है, ऐसी श्रुतदेवी भी स्थापित करना चाहिए ।।३९१।। अथवा जिनागमको पुस्तकोंमें सम्यक् प्रकार लिखाकर तत्पश्चात् शुभ तिथि, शुभ लग्न और शुभ मुहूर्तमें प्रतिष्ठाका आरम्भ करना चाहिए ।। ३९२ ।। आठ-दस हाथ प्रमाण लम्बीचौडी भूमिको यतनाके साथ भले प्रकार शुद्ध करके उसके ऊपर तत्प्रमाण मंडप बनाना चाहिए। वह मंडप चार तोरणोंसे और चार द्वारोंसे सुशोभित हो, नाना प्रकारके वस्त्रोंसे विभूषित हो, जिसपर ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही हों, जो नाना पुष्पोपहारोंसे युक्त हो, जिसमें पुष्प-मालाएँ लटक रही हों. जिसके दरवाजे वंदन-मालाओंसे विभूषित हों, जो द्वारके ऊपर दोनों कोनोंमें जलपरिपूर्ण कलशोंसे रमणीक हो। उस मंडपके बहुमध्यदेश में, अर्थात् ठीक बीचोंबीच प्रतिष्ठाशास्त्रमें कहे हुए प्रमाणसे समचतुरस्र अर्थात चौकोण पीठ (चबतरा) बनाकर और उसे सर्वत्र समान करके, चारों ही दिशाओंमें तोरण और वंदनमालाओंसे संयुक्त द्वारोंको बनाकर, तथा कोनोंमें दृढ मजबूत और स्थिर नद्यावर्त बनाकर, चीनपट्ट (चाइना सिल्क), कोशा नादि नाना प्रकारके १ ध अंगेगिज्जा। २ झ. वज्जावत्ताणि, म. प. छत्तावत्ताणि । ध छज्जावत्ताणि । स्वर्णरत्नमणिरौप्यनिर्मितं स्फाटिकामलशिलाभव तथा । उत्थिताम्बुजमहासनांगितं जैन बिम्बमिह शस्यते बुधै. ।। ६९ ।।-वसुबिन्दुप्रतिष्ठापाठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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