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________________ २५० श्रावकाचार-संग्रह सचित्तपिधानम् । अयमत्र दाता दीयमानोऽप्ययमस्येति समर्पणं परव्यपदेशः । प्रयच्छतोऽपि सत आवरमन्तरेण दानं मात्सर्यम् । अनगाराणामयोग्ये काले भोजनं कालातिक्रम इति। पात्रदानं स्वस्य परस्य चोपकारः । स्वोपकारः पुण्यसञ्चयः परोपकारः सम्यग्ज्ञानादिवृद्धिः । तच्च दानं पारम्पर्येण मोक्षकारणं साक्षात्पुण्यहेतुः । विधिविशेषाद् द्रव्यविशेषाद् दातृविशेषात पात्रविशेषाद् दानविशेषः । तत्र प्रतिग्रहोच्चदेशस्थापनमित्येवमादीनां क्रियाणामादरेण करणं विधिविशेषः । दीयमानेऽन्नादी प्रतिगृहीतुस्तपःस्वाध्यायपरिवृद्धिकरणत्वाद् द्रव्यविशेषः । प्रतिगहीतजनेऽभ्यस्ततया त्यागोऽविषादो दित्सतो वदतो दत्तवतश्च प्रीतियोगः,कुशलाभिसन्धितावसधारा-सुरप्रशंसादिदृष्टफलानपेक्षिता,निरुपरोधत्वमनिदानत्वंश्रद्धादिगुणसमन्वितत्वमित्येवमादि बातृविशेषः । मोक्षकारणगुणसंयोगः पात्रविशेषः । ततश्च फलविशषः। सत्पात्रोपगतं दानं सुक्षेत्रगतबीजवत् । फलाय यदपि स्वल्पं तदनल्पाय कल्पते ॥१४॥ तथा च दानफलविशेषेणोत्तमभोगभूमौ दशविधकल्पवृक्षजनितसुखफलं श्रीषणोऽन्वभूत् । तथा च दानानुमोवेन रतिवररतिवेगाख्यं कपोतमिथुनं विजयार्धप्रतिबद्धगान्धारविषयसुसीमासचित्तनिक्षेप है। आहारको सचित्त पत्रादिसे ढकना सचित्तपिधान है। इस आहारका दाता यह है. और दिया जानेवाला आहार इस अमुक पुरुषका हैं, ऐसा कहकर आहार देना परव्यपदेश है। आहार देते हुए भी आदरके विना देना मात्सर्य है। साधुओंको अयोग्यकाल में भोजन देने के लिए खडे होना कालातिक्रम अतीचार है। पात्रदान अपना भी उपकारक है और परका भी उपकारक हैं । दान देने पर पूण्यका संचय होना अपना उपकार है और अतिथिके सम्यग्ज्ञान आदिकी वृद्धि होना यह परका उपकार हैं । यह दान परम्परासे मोक्षका कारण है और साक्षात् पुण्यका कारण हैं। विधिकी विशेषतासे, द्रव्यकी विशेषतासे, दाताकी विशेषतासे और पात्रकी विशेषतासे दानमें विशेषता हो जाती है। प्रतिग्रह, उच्चस्थान पर स्थापन इत्यादि पूर्वोक्त क्रियाओंका आदरसे करना विधिकी विशेषता है। भिक्षामें दिया जानेवाला अन्न आदि यदि लेनेवाले पात्रके तप, स्वाध्याय आदिकी वद्धि करे, तो यह द्रव्यकी विशेषता कहलाती हैं। आहार लेनेवाले साधुको अभ्यस्त रीतिसे दान देना, विषाद नहीं करना, देनेके इच्छुक, देनेवाले और दे रहे दाताके प्रति प्रेमभाव रखना,अपने दानकी कशलताकी प्रख्याति चाहना, रत्न-सुवर्णादिके वर्षा की, और देवों द्वारा प्रशंसा आदि इहलौकिक फलोंकी अपेक्षा न रखना, किसीको दान देनेसे नहीं रोकना, निदान नहीं करना और श्रद्धा आदि गणोंसे युक्त होना इत्यादि दाताकी विशेषता है। साधुमें मोक्षके कारणभूत सम्यग्दर्शनादि गणोंका संयोग होना यह पात्रकी विशेषता है । इन विशेषताओंसे युक्त दानके फलमें भी विशेषता होती हैं। . जैसे उत्तम क्षेत्रमें बोया गया छोटा-सा भी बीज भारी फलको देता है, इसी प्रकार सत्पात्र. में दिया गया अल्प भी दान अनल्प (भारी) फलके लिए होता है अर्थात् महान् फल देता हैं ।। १४॥ देखो-श्रीषेण राजाने दानके फलकी विशेषतासे उत्तम भोगभूमि में दश प्रकारके कल्पवक्षजनित सुखोंका फल भोगा। तथा दानकी अनुमोदनासे रतिवर कपोत और रतिवेगा कपोती नामके कपोत युगल मेंसे विजयाध पर्वतपर अवस्थित गान्धारदेशकी सुसीमा नगरीके राजा आदित्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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