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________________ शीलसप्तकवर्णनम् २४९ द्विभागीकर्तुमशक्य: सन्मित्रः । एतेषामभ्यवहरणे सचित्तोपयोग इन्द्रियमदवृद्धिर्वातादिप्रकोपो वा स्यात् । तत्प्रतीकारविषये पापलेपो भवति । अतिथयश्चैनं परिहरेयरिति । संयममविनाशयन्नततीत्यतिथिः । अथवा नास्य तिथिरस्तीत्यतिथिः, अनियतकालगमनमित्यर्थः । अतिथये संविभागोऽतिथिसंविभागः । स चतुविध:-मिक्षोपकरणौषधप्रतिश्रय मेदात् । उक्तं हि-प्रतिग्रहोच्चस्थाने च पादक्षालनमर्चनम् । प्रणामो योगशुद्धिश्च भिक्षाशुद्धिश्च ते नव ।।१२।। उक्तं हि श्रद्धा शक्तिरलब्धत्वं भक्तिर्ज्ञानं दया क्षमा। इति श्रद्धादयः सप्त गुणा:स्युप्रेहमेधिनाम् ॥१३॥ एवंविधनवविधपुण्यः प्रतिपत्तिकुशलेन सप्तगुणैः समन्वितेज मोक्षमार्गमभ्युद्यतायातिथये संयमपरायणाय शुद्धचेतसाऽऽश्चर्यपञ्चकादिकमनिच्छता निरवद्या भिक्षा देया। धर्मोपकरणानि च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रोपबृंहणानि दातव्यानि । औषधं ग्लानाय वातपित्तश्लेष्मप्रक पहताय योग्य. मपयोजनीयम । प्रतिश्रयश्च परमधर्मश्रद्धया प्रतिपादयितव्य इति । अतिथिसंविभागवतस्य पञ्चातिचारा भवन्ति सचित्तनिक्षेपः सचिलपिधानं परव्यपदेशः मात्सर्य कालातिक्रमश्चेति । तत्र सचित्ते पद्मपत्रादौ निधानं सचित्तनिक्षेपः । सचित्तेनावरणं आहार करने पर वात आदि दोषका प्रकोप हो सकता हैं, और फिर उसके प्रतीकार करने में पापका लेप होता है, इसलिये अतिथिजनोंको इस प्रकारके आहारोंका परिहार करना चाहिये । जो संयमका विनाश नहीं करते हुए अर्थात् संयमकी रक्षा करते हुए सदा विहार करते रहते हैं, उन्हें अतिथि कहते हैं । अथवा जिसको तिथि निमत नहों, अर्थात् अनियत कालमें जो गमन करें, उन्हें अतिथि कहते हैं । एसे अतिथिके लिए आहार आदिका जो बिभाग किया जाता है. वह अतिथिसंविभाग कहलाता हैं। यह अतिथिसंविभाग भिक्षा उपकरण औषधि और प्रतिश्रय ( निवास स्थान वसतिका आदि) के भेदसे चार प्रकारका है। अतिथिको भिक्षा (आहार) देनेके विषयमें कहा गया हैं कि साधुको आता हुआ देखकर उसे पडिगाहे, ऊँचे स्थान पर बिठावे, पाद-प्रक्षालन करे.. पूजन करे, मन-वचन-काय इन तीनों योगोंकी शुद्धि कहे और आहार शुद्धि कहे ॥१२॥ दाताके गुण इस प्रकार कहे गये हैं-श्रद्धा, शक्ति, अलुब्धता, भक्ति, ज्ञान, दया और भमा ये सात गुण गृहस्थोंके होने चाहिये ॥१३॥ इस प्रकार उपर्युक्त नव प्रकारके पुण्योंसे नवधा भक्ति करने में कुशल और सात गणोंसे संयुक्त श्रावकको मोक्षमार्ग पर चलने में उद्यत, और संयम-परायण अतिथिके लिएशद्ध चित्तसे पंचाश्चय आदि फलकी इच्छा न करते हुए निर्दोष भिक्षा देना चाहिये । तथा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रको बढानेवाले धर्मोपकरण पीछी शास्त्र कमण्डलु आदि देनी चाहिये । वात-पित्त-कफके प्रकोपसे पीडित रोगी साधुको योग्य औषधि देनी चाहिये । तथा उनके ग्राममें आने पर परमश्रद्धासे वसतिका आदिका आश्रय प्रदान करना चाहिये। __इस अतिथिभविभागवतके पाँच अतीचार इस प्रकार है-सचित्तनिक्षेप, सचित्तपिधान परव्यपदेश मात्सर्य और काला तक्रम । देने योग्य आहारको सचित्त कमलपत्र आदिपर रखना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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