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________________ २४८ श्रावकाचार-संग्रह भेदात् । तत्र मधुमासं सदा परिहर्तव्यं सघातं प्रतिनिवृत्तचेतसा ! मद्यमुपसेव्यमान कार्याकार्यविवेकसम्मोहकरमिति तद्वर्जनं प्रमादविरहाय । केतक्यर्जुनपुष्पादीनि बहुजन्तुयोनिस्थानानि, आर्द्रश्रृङ्गवेरमूलकहरिद्रानिम्बकुसुमादीन्यनन्तकायव्यपदेशाहा॑णि । एतेषामुपसेवनेन बहुघातोऽल्पफलमिति तत्परिहारः श्रेयान् । यानवाहनाभरणादिष्वेतावदेवेष्टमतोऽन्यदनिष्टमित्यनिष्टानिवर्तनं कर्तव्यम् । न हि व्रतमभिसन्धिनियमाभावे सतीष्टानामपि चित्रवस्त्रवेषाभरणादीनामनपसेव्यानां परित्यागः कार्यों यावज्जीवम् । अथ न कालपरिच्छेवेन वस्तुपरिमाणेन च शक्त्यनुरूपं निवर्तनं कार्यम् । उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रतस्यातीचाराः पञ्च भवन्ति-सचित्ताहारः सचित्तसम्बन्धाहारः सचित्तसन्मिश्राहार:, अभिषवाहारः दुष्पक्वाहारश्चेति । तत्र चेतनावद्रव्यं सचित्तं हरितकायः, तदभ्यवहरणं सचित्ताहारः । सचित्तवतोपश्लिष्ट सचित्तसम्बद्धाहारः । सचित्तेन व्यतिकीर्णः सचित्तसम्मिश्राहारः । सौवीरादिद्रवो वा वृष्यं वाऽभिषवाहारः । सान्तस्तन्दुलभावेनातिक्लेदनेन वा दुष्ट: पक्वो दुःपक्वाहारः । सम्बन्ध मिश्रयोरयं भेदः-संसर्गमात्र सम्बन्धः, सूक्ष्मजन्तुव्याकीर्णत्वाकेतकी, अर्जुन पुष्प आदि अनेक त्रसजन्तुओंके योनिस्थान हैं, गीला अदरक, मूली, हलदी, निम्।पुष्प आदि अनन्तकायवाले पदार्थ हैं । इतके सेवन करने में बहुत जीवोंका घात हैं और फल अल्प प्राप्त होता है,इसलिये इनका परिहार करना ही श्रेयस्कर है । सवारीके यान वाहन और आभूषण आदि पदार्थोमें जितनेसे कार्य चले, उतने रखना ही इष्ट हैं, उससे अधिक अन्य पदार्थ अनिष्ट हैं, अतः इस व्रतधारीको अनिष्टसे निवृत्ति करना चाहिये । अभिप्रायपूर्वक नियमके अभावमें किसी वस्तुका सेवन नहीं करना व्रत नहीं कहलाता है,अतः अपने लिए इष्ट भी अनेक जाति के वस्त्र, विविध पोशाकें और अनेक प्रकारके आभूषण आदि जो प्रतिदिन सेवन करने में नहीं आते है, उनका परित्याग भी यावज्जीवनके लिए कर देना चाहिये । यदि यह सभव न हो तो कालकी मर्यादाके साथ वस्तुओंका परिमाण करते हुए शक्तिके अनुसार अनुपसेव्यसे निवृत्ति अवश्य करना चाहिये। उपभोगपरिभोग परिमाणवतके पाँच अतीचार इस प्रकार हैं-सचित्ताहार,सचित्तसम्बन्धाहार सचित्तसन्मिश्राहार अभिषवाहार और दुःपक्वाहार । चेतनावाली हरितकायिक वनस्पति आदि द्रव्यको सचित्त कहते हैं । सचित्त वस्तुको खाना सचित्ताहार । सचित्त वस्तुसे लिपटा हआ या सचित्त पत्र आदि पर रखा हुआ आहार सचित्त सम्बद्धाहार है। सचित्तसे मिश्रित आहार सचित्तसन्मिश्राहार है । सौवीर (सिरका अर्क आसव) आदि तरल और पौष्टिक पदार्थोको अभिषवाहार कहते हैं । भीतर चावल रूपवाला अर्थात् अर्धपक्व अथवा अधिक पक जानेसे जला हुआ दुष्ट पक्व आहार दुःपक्वाहार कहलाता हैं । सचित्त सम्बन्ध और सचित्तमिश्रमें यह भेद हैं कि जिस आहारका सचित्त पत्रादिके साथ केवल संसर्ग हुआ है, वह सचित्त सम्बन्धाहार कहलाता हैं और जिस आहारमें हरी मिर्च या हरे धनिये आदिके छोटे-छोटे सचित्त टुकड़ोंके सूक्ष्म जीव इस प्रकार मिल गये हों कि जिनका अलग करना शक्य नहीं है, ऐसे आहारको सचित्तसन्मिश्राहार कहते है। इनमेंसे प्रारम्भके तीन प्रकारके आहारोंके खाने पर सचित्त वस्तुका उपयोग होता है, चौथे प्रकारके आहार करने पर इन्द्रियोंमें मदकी वृद्धि होती हैं और पंचम प्रकारके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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