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________________ शीलसप्तकवर्णनम् २४७ पर्वणि चतुविधाऽऽहारनिवृत्तिः प्रोषधोपवासः। निरारम्मः पावकः स्वशरीरसंस्कारकारण. स्नानगन्ध्रमाल्याभरणादिभिर्भावरहितः शचाववकाशे साधुनिवासे चैत्यालये स्वप्रोषधोपवासगृहे वा धर्मकथाश्रवणबावणचिन्तनावहितान्तःकरण. सन्नुपवसेत् । .. प्रोषधोपवासस्य पञ्चातिचारा भवन्ति- अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गः अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितावानं अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितसंस्तरोपक्रमणं अनादरः स्मृत्यनुपस्थान चेति । तत्र जन्तवः सन्ति, न सन्ति वेति प्रत्यवेक्षणं चक्षषोापारो मदुनोपकरनेन यत् क्रियते प्रयोजनं तत्प्रमार्जनं अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितायां भुवि मूत्रपुरीषोत्सर्गोऽप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गः । अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितस्याहंदाचार्यादिपूजोपकरणस्य गन्धमाल्यधूपादेरात्मपरिधानाद्यर्थस्य वस्त्रपात्रादेश्चादानमप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितादानम् । अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितस्य प्रावरणादेः सं तरणस्योपक्रमणमप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितसंस्तरोपक्रमणम् । क्षत्पीडितत्वादावश्यकेष्वनुत्साहोऽनादरः । स्मृत्यनुपस्थानं व्याख्यातमेव । उपेत्यात्मसात्कृत्य भुज्यत इत्युपभोगः अशनपानगन्धमाल्यादिः । सकृद् भुक्त्वा पुनरपि भुज्यत इति परिभोगः, आच्छादनप्रावरणालङ्कारशयनासनगृहयानवाहनादिः । तयोः परिमाणमुपभोगपरिमोगपरिमाणम् ।मोगपरिसंख्यानं पञ्चविधम्-त्रसघातप्रमाद-वहुवधानिष्टानुपसेव्यविषय पर्वके दिन चारों प्रकारके आहारका त्याग करना प्रोषधोपवास है। पर्वके दिन श्रावक आरम्भ-रहित होकर और अपने शरीरके संस्कारके कारणभूत स्नान-गन्ध-माला-आभूषण आदिसे रहित होकर किसी पवित्र स्थान पर, साधुओंके निवास स्थलपर, चैत्यालयमें, अथवा अपने प्रोषधोपवासके घरमें धर्म-कथाओंके सुनने-सुनाने में और तत्त्व-चिन्तवन में मनको लगाता हुआ उपवास करे। प्रोषधोपवासके पांच अतीचार इस प्रकार है-अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान, अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितसंस्तरोपक्रमण, अनादर और स्मृत्यनुपस्थापन । यहाँ जीव है, अथवा नहीं, इस प्रकार आँखसे देखने को प्रत्यवेक्षण कहते है। किसी कोमल बुहारी आदि उपकरणसे स्थानके शुद्ध करने या बुहारनेको प्रमार्जन कहते है। बिना देखी बिना शोधी भूमिपर मल-मूत्रको छोडना अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्ग कहलाता हैं । अरहंत और आचार्यादि की पूजाके उपकरण, गन्ध, माला, धूप आदि सामग्री और अपने पहनने आदिके वस्त्र-पात्र आदिका बिना देखे बिना शोधे ग्रहण करना अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान है। बिना देखे बिना शोधे ओढने और बिछानेके वस्त्र-बिस्तर चटाई आदिका उपयोग करना अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितसंस्तरोपक्रमण हैं। भूखसे पोडित होनेके कारण उपवासके दिन करने योग्य आवश्यकोंमें उत्साह न रखना अनादर है । स्मृत्यनुपस्थापनकी व्याख्या सामायिकके अतीचारोंमें पहले कर ही चुके है। जो प्राप्त करके आत्मसात् कर भोगे जायें ऐसे भोजन, पान, गन्ध, माला आदि पदार्थ उपभोग कहलाते है। एक बार भोग करके फिर भी जो भोगे जावें, ऐसे ओढने बिछानेके वस्त्र, अलंकार, शयन, आसन, गृह, यान और वाहन आदि पदार्थ परिभोग कहलाते है। उनका परिमाण करना उपभोगपरिमाण हैं। भोगपरिसंख्यान सघात, प्रमाद, बहुवध, अनिष्ट और अनुपसेव्य विषयके भेदसे पाँच प्रकारका है-त्रसघातके प्रति निवृत्त चित्तवाले श्रावकको मधु और मांसका भक्षण सदाके लिये छोड देना चाहिये । मद्यका सेवन मोहित करके कार्य और अकार्यके विवेकको नष्ट कर देता है,अतएव प्रमादको दूर करनेके लिए उस मद्यका त्याग करना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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