________________
२४६
श्रावकाचार-संग्रह निग्रंथलिङ्गधारिणएकादशागाध्ययिनो महावतपरिपालनादसंयममावस्याप्यपरिमप्रैवेयकविमानवासितोपपन्ना भवति । एवं भव्योऽपि निर्ग्रन्थरूपधारी सामायिकवशावहमिन्द्रस्थानवासी भवति चेत् किं पुनःसम्यग्दर्शनपूतात्मा सामायिकमापन्न इति ।
सामायिकवतस्य सर्वसावग्रयोगप्रत्याख्यानस्य पञ्चातीचारा भवन्ति-कायदुःप्रणिधानं वाग्दुःप्राणिधानं मनोदुःप्रणिधानं अनावरः स्मृत्यनुपस्थापनं चेति तत्र । दुष्टं प्रणिधानं दुःप्रधानम्, अन्यथा वा प्रणिधानं दुःप्रणिधानम् . क्रोधादिपरिणामवशाददुष्टं प्रणिधानं भवति । शरीरावयवानाम निमृतावस्थामं कायदुःप्रणिधानम् । वर्णसंस्कारे भावार्थे चागमकत्वं चापलादि वाग्दुः गणिधानम् । मनसोऽपितत्वं मनोदुःप्रणिधानम् । इति कर्तव्यताँ प्रत्यसाकल्याउथ कथञ्चित्प्रवृत्तिरनत्साहोऽनादरः । अनैकाग्यमसमाहितमनस्कता स्मत्यनुपस्थापनम् । अथवा रात्रिदिवं प्रमादिकस्य सञ्चिन्त्यानुपस्थापनं स्मृत्यनुपस्थानम् । मनोदुःप्रणिधान-स्मृत्यनुपस्थानयोरयं भेदः- क्रोधाद्यावेशासामायिकौदासीन्येन वाऽचिरकालमवस्थापनं मनसो मनोदुःप्रणिधानम् । चिन्ताया: परिस्पन्दनादैकाग्येणानवस्थापनं स्मृत्यनुपस्थापनमिति विस्पष्टमन्यत्वम् ।
प्रोषधः पर्वपर्यायवाची । शब्दादिग्रहणं प्रति निवृत्तीन्सुक्यानि पञ्चापोन्द्रियाणि उपेत्य तस्मिन् वसन्तीत्युपवासः : उक्तं च
उपत्याक्षाणि सर्वाणि निवृत्तानि स्वकार्यतः वसन्ति यत्र स प्राजक्पवासोऽभिधीयते ॥११॥ होना संभव होता है । इसी प्रकार द्रव्यनिसर्ग्रन्थरूपधारी भव्य भी सामायिकके वशसे अहमिन्द्रोंके स्थानका निबासी होता है । फिर सम्यग्दर्शनसे पवित्र आत्मा वाला यदि कोई निर्ग्रन्थ लिंग धारणकर सामायिकको प्राप्त हो, तो उसका क्या कहना ; वह तो मोक्षको ही प्राप्त करेगा।
___ सार्वसावद्ययोगके परित्यागवाले इस सामायिकव्रतके पांच अतीचार इस प्रकार है-कायदुःप्रणि धान, वाग्दु प्रणिधान, मनोदुःप्रणिधान, अनादर और स्मृत्युपस्थापन।खोटे उपयोगको दुःप्रणिधान कहते हैं। अथवा अन्यथा प्रवृत्तिको दुःप्रणिधान कहते हैं। क्रोधादिकषायरूप खोटे परिणामोके वशसे दष्ट प्रणिधान होता हैं। शरीरके हस्त-पाद आदि अंगोंको स्थिर न रखना कायदुःप्रणिधान हैं । शब्दोंके उच्चारणमे और उसके भावरूप अर्थमें अजानकारी और चपलता आदि रखना वाग्दुःप्रणिधान हैं । सामायिक करने में मनका उपयोग न लगाना मनोदुःप्रणिधान हैं । सामायिकमें करने योग्य कार्योके प्रति अपूर्णता रखन।, उनमें जिस किसी प्रकार पूरा करनेकी प्रवृत्ति होना, सामायिक करने में उत्साह न होना अनादर हैं । सामायिक करते समय चित्त एकाग्र न रखना, अथवा चित्त में समाधानता न रखना, अथवा रात-दिन प्रमाद-युक्त रहनेसे बोलते या चिन्नवन करते हए पाठ या अर्थको भूल जाना स्मृत्यनुपस्थापन कहलात है। मनोदुःप्रणिधान और स्मृत्यनुपस्थापनमें यह भेदहैं-कि क्रोधादिके आवेशसे अथवा सामायिक करने में उदासीनता रखनेसे अल्पकाल सामायिकमें मनका लगना मनोदुःप्रणिधान हैं । और चिन्ताके विकल्प उठते रहनेसे चित्तका एकाग्रतासे स्थिर न रहना स्मृत्यनुपस्थापन है । इस प्रकार दोनों अतीचारोंमे भिन्नता स्पष्ट हैं। ..
प्रोषध शब्द पर्वका पर्यायवाची हैं । कर्ण आदि पाँचों इन्द्रियाँ अपने शब्द आदि विषयोंके ग्रहणके प्रति उत्सुकता छौड्कर जब आत्मामें आकर निवास करती है. तब उसे उपवास कहते है।
____ कहा भी हैं-सब इन्द्रियाँ अपने विषयभुत कार्योसे निवृत्त होकर और आत्मामें आकर जब निवास करे, तब वह ज्ञानियोंके द्वारा उपवास कहा जाता है ॥११॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org .