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________________ शीलसप्तकवर्णनम् २४५ कौत्कुच्यम् । अशालीनतया यत्किञ्चनानर्थकं बहुप्रलपनं तन्मौखर्यम् । असमीक्ष्याधिकरणं त्रिविधं. मनोवादकायविषयभेदात् । तत्र मानसं परानर्थककाव्यादिचिन्तनम् । वाग्भवं निष्प्रयोजननकथाव्याख्यानम,परपीडाप्रधानं यत्किञ्चनवक्तत्वं च । कायिक प्रयोजनमन्तरेण गच्छंस्तिष्ठन्नासीनो वा सचित्ताचित्तपत्रपुष्पफलच्छेदनभेदनकुट्टनक्षेपणादीनि कुर्यात्; अग्निविषक्षारादिप्रदानं चारभेत । इत्येवमादि तदेतत्सर्वमसमीक्ष्याधिकरणम् । यस्य यावतार्थेनोपभोगपरिभोगौ परिकल्पितौ तस्य तावानेवार्थ इत्युच्यते । ततोऽन्यस्याधिक्यमानर्थक्यं तदुपभोगानर्थक्यम् । सम्यगेकत्वेनायनं गमनं समयः, स्वविषयेभ्यो विनिवृत्त्य कायवाङ्मनःकर्मणामात्मना सह वर्तनाद् द्रव्यार्थेनारमन एकत्वगमनमित्यर्थः । समय एव सामायिकम्, समयः प्रयोजनमस्येति वा सामायिकम् । तच्च नियतकाले नियतदेशे च भवति । नियक्षेपमेकान्त भवनं वनं चैत्यालयादिक च देशं मर्यादीकृत्य केशबन्धं मुष्टि बन्धं वस्त्रबन्धं पर्यङ्कमकरमुखाद्यासनं स्थानं च कालमवधि कृत्वा शीतोष्णादिपरीषहविजया उपसर्गसहिष्णुमौंनी हिंसादिभ्यो विषयकषायेभ्यश्च विनिवृत्त्य सामायिके वर्तमानो महाव्रती भवति । हिंसादिषु सर्वेष्वनासक्तचित्तोऽभ्यन्तरप्रत्याख्यानसंयमघातिकर्मोदयजनितमन्दाविर तिपरिणामे सत्यपि महाव्रतमित्युपचर्यते । एवं च कृत्वाऽभाव्यस्यापि चलते हुए, खडे हुए या बैठे-बैठे ही सचित्त-अचित्त पत्र-पुष्प-फलादिका छेदन-भेदन करना,कटना, फेंकना आदि कार्य करना, अग्नि, विष, क्षार आदिको देने और बतानेका आरम्भ करना, तथा इसी प्रकारके और भी जितने अनर्थ कार्य हैं उनका करना सो वह सर्व असमीक्ष्याधिकरण हैं। जिस मनुष्यका जितने धन या वस्तुओंसे उपभोग-परिभोग हो सकता है, उतना वह उसके लिए 'अर्थ' कहा जाता है। उससे अधिक अन्यका संग्रह करना यह उसका आनर्थक्य हैं। इस प्रकार आवश्यकतासे अधिक उपभोग-परिभोगको वस्तुओंका संग्रह करना उपभोगपरिभोगानर्थक्य कहलाता है। इस प्रकार अनर्थदण्डव्रतके अतीचारोंका वर्णन किया। अब सामायिक शिक्षाव्रतका वर्णन करते हैं-सम्यक प्रकारसे आत्माके एकत्वके साथ गमन करना, अर्थात् आत्मामें तल्लीन होना समय हैं। मन-वचन-काकी क्रियाओंका अपने-अपने विषयोंसे निवृत्त होकर आत्माके साथ वर्तन करनेको समय कहते हैं। अर्थात् द्रव्यार्थरूपसे आत्माका एकत्वगमन या एकाग्र होना समय कहलाता हैं । इस एकत्वगमन रूप समयको ही सामायिक कहते हैं । अथवा समय अर्थात् आत्मस्वरूपकी प्राप्ति जिसका प्रयोजन हो, उसे सामायिक कहते हैं । यह सामायिक नियतकाल में नियतदेशमें किया जाता है। विक्षेप-रहित एकान्त भवन, वन या चैत्यालय आदि योग्य देशको मर्यादा करके. केशबन्ध, मुष्टिबन्ध, वस्त्रबन्ध, पर्यङ्कासन, मकरमुखासन आदि आसन, स्थान और कालको मर्यादा करके शीत-उष्ण आदि परीषहोंको जीतनेवाला, आनेवाले उपसर्गोको सहन करनेवाला, मौनधारक,हिंसादिकपापोंसे और विषय-कषायोंसे निवृत्त होकर सामायिक में वर्तमान श्रावक महाव्रती होता हैं। यद्यपि उसके भीतर संयमका घात करनेवाले प्रत्याख्यानावरणकषायरूप कर्मके उदय-जनित मन्द अविरति परिणाम पाये जाते है, तथापि हिंसादिक सर्व सावद्ययोगमें अनासक्त चित्त होनेसे उसके अणुव्रतोंको उपचारसे महाव्रत कहा जाता है । इस प्रकार सामायिक करके अन्तरंगमें असंयम भाववाले और बाहर निर्ग्रन्थ लिंग धारण करनेवाले, तथा ग्यारह अंगोंका अध्ययन करनेवाले अभव्य जीवके भी उपरिम (नवम) अवेयक विमानवासी अहमिंद्रोंमें उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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