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________________ २४४ श्रावकाचार-संग्रह आरम्भकोपदेशश्चेति । तत्रास्मिन् प्रदेशे दास्यो दासाश्च सुलभास्तानमून वेशानीत्वा विक्रय कृते महानर्थलामो भविष्यतीति क्लेशवणिज्या । गोमहिष्यादीन् पशूनत्र गृहीत्वाऽन्यत्र देशे व्यवहारे कृते सति भूरिवित्तलाम इति तिर्यगवणिज्या । वागुरिक-शौकरिक-शाकुनिकादिभ्यो मृगवराहशकुन्तप्रभूतयोऽमुष्मिन् देशे सन्तीति वचनं वधकोपदेशः । आरम्भकेभ्यः कृषीबलादिभ्यः क्षित्युदकज्वलनपवनवनस्पत्यारम्भोऽनेनोपायेन कर्तव्य इत्याख्यानमारम्भकोपदेशः । इत्येवं प्रकारं पापसंयुक्त वचनं पापोपदेशः। प्रयोजनमन्तरेण भूमिकुट्टनसलिलसेचनाग्निविध्यापनवातप्रतिघातवनस्पतिच्छेदनाद्यवद्यकर्म प्रमादाचरितम् । विषशास्त्राग्निरंज्जुकशादण्डदिहितोपकरणप्रदानं हिंसाप्रदानम् । रागादिप्रवृद्धितो दुष्टकथाश्रवणश्रावशिक्षणव्यापृतिरशुभ तिरिति । एतस्मादनर्थदण्डाद्विरति: कार्या। अनर्थदण्डविरमणव्रतस्य पञ्चातिचारा भवन्ति-कन्दर्पः कौकुच्यं मौखयं असमीक्ष्याधिकरणं उपभोगपरिभोगानर्थक्यमितिाचारित्रमोहोदयापादितादागोद्रेकाद्योहास्यसंयुक्तोऽशिष्ट वाक्प्रयोगः सः कन्दर्पः । रागस्य समादेशाद्धास्यवचनमशिष्टवचनमित्येतदुभयं परस्मिन् दुष्टेन कायकर्मणा युक्तं मल्यमें मिलते है। उन्हें अमुक देशोंमें ले जाकर बेंचनेपर भारी धनलाभ होगा, इस प्रकारका उपदेश देना क्लेशवणिज्या है। गाय-भैंस आदि पशुओंको यहाँ पर खरीद कर अन्य देशमें बेंचने पर भारी धन-लाभ होगा, ऐसा उपदेश देना तिर्यग्वणिज्या हैं । जाल बिछाकर मग आदिके पकड़ने वालोंसे यह कहना कि इस देशमें मृग आदि बहुत हैं, सूकर पकडने वालोंसे यह कहना कि अमुक देशमें सूकर बहुत पाये जाते है और पक्षी पकडने वालोंसे यह अहना कि अमुक प्रदेशमें पक्षी आदि बहुत है, ऐसे कहनेको वधकोपदेश कहते हैं। खेती आदिका आरम्भ करनेवाले किसान आदिकोंसे यह कहना कि भूमि इस प्रकार जोतना चाहिए, पानी इस प्रकार सींचना चाहिए, अग्नि इस प्रकार लगाना चाहिए, पवनसे अन्नकी उडावनी इस प्रकार से करना चाहिए और पेडोंकी इस प्रकारसे काट-छाँट करना चाहिए, इस प्रकारका उपदेश देना आरम्भकोपदेश कहलाता हैं। इन चारों प्रकारके,तथा इसी प्रकारके पाप-संयुक्त वचन कहना पापोपदेश अनर्थदण्ड है। प्रयोजनके बिना ही भूमिको कुटना-खोदना, जलका, सींचना, अग्निका बुझाना, पवनका प्रतिघात करना और वनस्पतिका छेदना आदि पाप कार्य करनेको प्रमादाचरित कहते है। विष, शास्त्र, अग्नि, रस्सी, चावक, दण्डा आदि हिंसाके उपकरण देना हिंसाप्रदान अनर्थदण्ड हैं। राग-द्वेष आदिकी वृद्धिके कारण होनेसे खोटी कथाओंका सुचना, सुनाना, शिक्षण देना और उनका प्रसार करना अशुभश्रति हैं। इस प्रकारके अनर्थदण्डसे विरति करना चाहिए। ऐसे पाँच प्रकारके अनर्थदण्डोंका त्याग करना अनर्थदण्डव्रत है। अनर्थदण्ड विरमणव्रतके पाँच अतीचार इस प्रकार है-कन्दर्प, कौत्कुच्य,मौखर्य, असमीक्ष्या. धिकरण और उपभोगपरिभोगानर्थक्य । चारित्रमोहके उदयसे होनेवाले रागके उद्रेकसे जो हास्यमिश्रित अशिष्ट वचन बोलना सो कन्दर्प हैं। दूसरे मनुष्य पर कायकी खोटी चेष्टाको दिखाते हए रागसे समाविष्ट हॅसीके वचन बोलना, अशिष्ट वचन बोलना, अथवा दोनों ही कार्य करना कौत्कूच्य कहलाता है। अशालीनरूपसे जो कुछ भी अनर्थक बहुत बकवाद करना, सो मौखर्य है। मन, वचन और कायके भेदसे असमीक्ष्याधिकरण तीन प्रकारका हैं। दूसरेका अनर्थ करनेवाले काव्य आदिका चिन्तवन करना मानसअसमीक्ष्याधिकरण हैं । निष्प्रयोजन कथाओंका व्याख्यान करना अथवा अन्यको पीडाकारी वचन कहना वाचनिक असमीक्ष्याधिकरण है। प्रयोजनके विना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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