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________________ २५१ शीलसप्तकवर्णनम् नगराधिपतेरादित्यगते रतिवरवरो हिरण्यवर्मनामा नन्दनोऽभूत् । तस्मिन्नेव गिरी गिरिविषये भोगपुरपतेर्वायुरथस्य रतिवेगवरी प्रभावत्याख्या तनयाऽभूत् । एवं हिरण्यवर्मा प्रभावती च जातिकुलसाधित विद्याप्रमावेन सुखमन्वभूताम् । उक्तहिंसादिपञ्चदोषविरहितेन द्यूतमद्यमांसानि परिहर्तव्यानि । तथा चोक्तं महापुराणे हिसाऽसत्यस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात् । द्यूतान्मासान्मधाद्विरतिर्गृहिणोऽष्ट सन्त्यमी मूलगुणाः ।।१५।। कितवस्य सदा रागद्वेषमोहवञ्चनानतानि प्रजायन्ते, अर्थक्षयोऽपि भवति, जनेष्वविश्वसनीयश्च । सप्तव्यसनेषु प्रधानं द्यूतं तस्मात्तरिहर्तव्यम् । तथा च-भरतेऽस्मिन् कुलालविषये श्रावस्तिपुराधिपतिः सुकेतुमहाराजो महाभोगी चूतव्यसनाभिहतः स्वकीयं कोशं राष्ट्रमन्तःपुरंच हारयित्वा महादुःखाभिभूतोऽभूत् । तथा च युधिष्ठिरोऽपि धूतेन राज्या भ्रष्टः कष्टां दशामवाप। मांसानिवृत्तिरहिसाव्रतपरिपालनार्थम् । मांसाशिनं साधवो विनिन्दन्ति, प्रेत्य च दुःखभाग् भवति । तथा चान्यरुक्तम् मांस भक्षयति प्रेत्य यत्य मांसमिहादम्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥१६॥ गतिके रतिवर कपोतके हिरण्यवर्मा नामका पुत्र हुआ। और उसी ही पर्वतपर गिरिदेशमें भोगपुर के स्वामी वायुरक्षके वह रतिवेगा कपोती प्रभावती नामकी पुत्री उत्पन्न हुई । पुनः हिरण्यवर्मा और प्रभावतीने जाति विद्या,कुल विद्या और साधित विद्याओंके प्रभावसे जीवन भर सुख भोगे। उपर्युक्त हिंसादि पाँच पापोंसे रहित श्रावकको द्यूत, मद्य और मांसका भी परिहार करना चाहिए। जैसा कि महापुराण में कहा है बादर भेदस्वरूप स्थूल हिंसासे, अंसत्यसे, चोरीसे, अब्रह्मसे और परिग्रहसे, तथा तसे, मांससे और मद्यसे विरत होना ये गृहस्थोंके आठ मूलगुण हैं ॥१५॥ ___ द्यूत खेलनेवालेके सदा राग, द्वेष, मोह, कपट और असत्य वचन उत्पन्न होते है, धनका नाश भी होता हैं, और लोगोंमें अविश्वासका पात्र भी बनता है । सातों ही व्यसनोंमें चूत सबसे प्रधान हैं, इसलिये उसका पारत्याग ही करना चाहिये । देखें-इसी भरतक्षेत्रके कुलाल देशमें श्रावस्ती नगरीका राजा सुकेतु महाराज महान् भोगवाला था, किन्तु द्यूतव्यसनका मारा वह अपने खजानेको, राष्ट्रको और अन्तःपुरको भी हार कर महादुःखोंसे पीडित हुआ। तथा युधिष्ठिर महाराज भी द्यूतसे राज्यभ्रष्ट होकर अत्यन्त कष्टदायिनी दशाको प्राप्त हुए। अहिंसाव्रतकी परिपालनाके लिए मांससे निवृत्ति करना चाहिये। मांस-भक्षी पुरुषकी साधुजन निन्दा करते हैं और परलोकमें वह भारी दुःखोंको भोगता हैं । जैसा कि अन्य मतवालोंने भी कहा हैं इस लोकमें मै जिसका मांस खाता हूँ,परलोकमें वह मुझे खायेगा । अर्थात् । 'मांस' ये दो अक्षर हैं, 'मां' मुझे, 'स' वह खायगा, जिसे कि मै आज खा रहा हूँ, यह 'मांस' शब्दकी मांसता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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