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________________ २५२ श्रावकाचार-संग्रह मांसं प्राणिशरीरं प्राण्यङगस्य च विदारणेन विना । तन्नाप्यते ततस्तत्त्यक्तं जैनः सदा सर्वैः ।। १७॥ तथा हि कुम्मनाम्नो नरपतेर्भीमो नाम महानसिक स्तिर्यग्मांसमलभमानो मृतशिशुमांस सर्वसंभारेण सन्मिश्रं कृत्वा कुम्भस्य दत्तवान् । ततः प्रभृति सोऽपि नरमांसलोलुपः सञ्जातः । तज्ज्ञात्वा प्रकृतयो राज्यस्थायमयोग्य इति तं परिहृतवत्यः । तथा च विन्ध्यमलयकुटजवने किरात मुख्यः खदिरसारः समाधिगुप्तमुनि दृष्ट्वा प्रणतः । तस्मै धर्मलाभ इत्युक्ते कोऽसौ धर्मः कोऽसौ लाभ इत्युक्तपरिप्रश्ने मांसादिनिवृत्तिर्धर्मस्तत्प्राप्तिर्लाभ:, ततः स्वर्गादिसुखं जायत इत्युक्तवतिमुनो तत्सर्वं परिहर्तुं महमशक्ल इति वचने तद कूतमवधार्य त्वया काकमांसं पूर्वीक भक्षितसुत न वेत्युक्तेऽकृत मक्षणोऽहमिति प्रतिवचने यद्येवं तदभक्षणव्रतं त्वया गृह्यतामित्युपदेशेन तत्परिगृह्याभिवन्द्य गतवतः कालान्तरे तस्यामये समुत्पन्ने सति वैद्येन काकमांसभक्षणादस्य व्याधे मनीषी जन कहते हैं ||१६|| मांस यह प्राणियों का शरीर जनित पदार्थ हैं, क्योकि यहमांस प्राणियोंके अंगका विदारण किये बिना नहीं प्राप्त होता हैं, अतः सभी जैन लोग सदाके लिए उस मांसका त्याग करते है ।। १७ ।। देखो - राजा कुम्भके भीम नामका एक रसोइया ( पाचक ) था । किसी दिन उसे तिर्यंच पशुका मांस नहीं मिला, इसलिये उसने एक मरे हुए बालकका मांस पकाया और उसमेंसब मसाले डालकर राजा कुम्भको खानेके लिए दिया । उसे यह बहुत स्वादिष्ट लगा और तबसे वह नर-मांस खानेका लोलुपी हो गया । यह बात जानकर वहाँकी प्रजाने 'यह राज्यके अयोग्य हैं । ऐसा निश्चयकर उसे राज्यसे निकाल दिया । इसी प्रकार विन्ध्याचलके मलयकुटज वनमें खदिरसार नामके एक भीलोंके मुखियाने समाधिगुप्त मुनिको देखकर उन्हें नमस्कार किया । मुनिराजने उसके लिए 'धर्मलाभ हो' ऐसा आशीर्वाद दिया । इस पर खदिरसारने पूछा कि धर्म क्या हैं और उसका लाभ क्या है? उसके ऐसा पूछने पर मुनिराजने कहा कि मांसादिका त्याग करना धर्म है, और उसकी प्राप्ति होना लाभ कहलाता है । उस धर्मके लाभसे स्वर्गादिके सुख प्राप्त होते हैं । मुनिराज के ऐसा कहने पर खदिरसार ने कहा कि मै सर्व प्रकार के मांसका त्याग करनेके लिए असमर्थ हूँ । उसके यह कहने पर मुनिराजने उसका अभिप्राय जानकर उससे पूछा कि क्या तूने पहले कभी काकका मांस खाया हैं, या नहीं ? इसके उत्तरमें खदिरसारने कहा कि मैने आज तक कभी भी काकका मांस नही खाया है। यह सुनकर मुनिराजने कहा कि यदि ऐसा हैं, तो तू काक- मांसके नहीं खानेका व्रत ग्रहण कर ले । इस प्रकार मुनिराजके उपदेशसे काक- मांस' के न खानेका व्रत लेखर और मुनिराजकी वन्दना करके वह चला गया । कालान्तर में उसके किसी रोग के उत्पन्न होने पर वैद्य कहा कि काक- मांस खानेसे इनकी व्याधिका उपशमन होगा । तब खदिरसारने मनमें सोचा कि कण्ठगत भी प्राणोंके होने पर मुझे मांस भक्षण नहीं करना चाहिये । मैने काक-मांसके उपयोग न करने का व्रत तपोधन मुनिराजके समीप ग्रहण किया हैं। अब ( परीक्षा के समय ) संकल्पका भंग करने पर सत्पुरुषता कैसे रहेगी । इसलिए मैं काक -मांसका भक्षण नहीं करूँगा ऐसी उसनें प्रतिज्ञा की । उसकी प्रतिज्ञा सुन कर और उससे उसके अभिप्रायको जानकर उसे काक-मांस खिलाने के लिए उसका बहनोई सौरपुर नगरका राजा शूरवीर जब अपने नगरसे खदिरसार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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