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________________ शीलसप्तकवर्णनम् २५३ रुपशमो भविष्यतीत्युक्ते कण्ठगतेष्वपि प्राणेषु मया न कर्त्तव्यं तत्काकमांसोपयोगविरमणवतं तपोधनसमीपे परिगृहीतं सङ्कल्पभङ्गे कुतः सत्पुरुषता? तत: काकमांसाभ्यवहरणं न करिष्यामीति प्रतिज्ञाने समुपलक्षिततदीयाकूतस्तं मांसमुपयोजयितुं सौरपुराधिपतिः शूरवीरनामा तस्य मैथुन: समागच्छन् वनगहनगतवटतरोरधः काञ्चिदमिरुदती समीक्ष्य 'कथय केन हेतुना रोदिष्येका त्वम्' इत्यनुयुक्ता साऽवोचवहं यक्षी । तव श्यालकं बलवदामयपरिपीडितं मांसभक्षणविरमणव्रतफलेन मे भविष्यन्तमधिपति भवानद्य मांसभोजनेन नरकगतिभागिनं कर्तुं प्रारभत इति रोदनमनुभवामीति तयोदितः 'श्रद्धेहि' तदहं न कारयिष्यामीति व्याहृत्य गत्वा तमवलोक्य शरोरामयनिराकरणहेतुस्त्वया मांसोपयोगः क्रियतामिति प्रियश्यालकवचनश्रवणेन त्वं प्राणसमो बन्धुः श्रेय एव मे कथयितुमर्हसि, न हितार्थवचनतन्नरकगतिप्रापणहेतुत्वात् । एवं म्रियमाणोऽपि म्रिये, नतु प्रतिज्ञाहानि करोमि' इति निगदितस्तदभिप्रायविधारणात् स तस्मै यक्षीनिरूपितवृत्तान्तमकथयत् । सोऽपि तदाकर्णनावहिंसादिश्रावकवतमविकलमादाय जीवितान्ते सौधर्मकल्पे देवोऽभवत् । शूरवीरश्च तस्य परलोकक्रियावसान उपगच्छन् यक्षी निरीक्ष्य कथय स कि मे मैथुनस्तव पतिरजायतेति परिपष्टा साऽवोचत् - स्वीकृतसमस्तवतसंग्रहस्यामुख्यव्यन्तरगतिपराङ्मुखस्य सौधर्मकल्पे समुत्पत्तिरासीत् । ततो मदधिपत्वप्रच्युतः प्रकृष्टदिव्यभोगमन भवतीति हृदयगततद्वचनार्थनिश्चतमतिरहो व्रतप्रमावः समभिलषितफलप्रदानसमर्थ इति समाधिगुप्तमुनिसमीपे परिगृहीतश्रावकवतो बभूव । खदिरसारो यहाँ जा रहा था, तब गहन वनके मध्य वट वृक्ष के नीचे किसी रोती हुई स्त्रीको देखकर उसने उससे पूछा कि 'कहो किस कारणसे तुम यहाँ अकेली बैठी रो रही हो?' ऐसा पूछे जानेपर वह बोली-मै एक यक्षी हूँ। तुम्हारा साला जो किसी बलिष्ठ रोगसे पीडित है, वह काक-मांस भक्षण न करनेके व्रतके फल से मर कर मेरा पति होनेवाला है। किन्तु आप आज उसे मांस भोजन करा कर नरकगतिका भागी बनाने के लिए जा रहे हैं, इस दुःखसे मै रो रही हूँ । उस यक्षीके ऐसा कहने पर शूरवीरने कहा-तू विश्वास कर, मै उसे मांस-भोजन नहीं कराऊँगा। ऐसा कहकर वह सालेके घर गया और उसे अत्यन्त रुग्ण देखकर बोला कि तुम्हें शरीरके रोगनिराकरण करनेके लिए मांसका उपयोग करना चाहिये । इस प्रकार प्रिय साले (बहनोई) के वचन सुनकर खदिरसारने कहा-'तुम मेरे प्राणों के समान बन्धु हो, तुम्हें मेरे कल्याणकी ही बात कहनी चाहिये । मांस-भक्षण करनेका कहना यह मेरे हितके लिए नहीं हैं,क्योंकि ये तो मुझे नरकगतिमें पहुंचाने के कारण हैं । इस प्रकार यदि मुझे मरना पडेगा, तो मर जाऊँगा, किन्तु अपनी प्रतिज्ञाका भंग नहीं करूँगा। इस प्रकार कहने से उसका अभिप्राय जानकर शूरवीरने खदिरसारके लिए यक्षीके द्वारा कहा हुआ सर्व वृत्तान्त कहा। वह भी उसे सुनकर श्रावकके अहिंसादि सर्व व्रतोंको ग्रहण करके जीवन के अन्त में मर कर सौधर्म कल्पमें देव उत्पन्न हुआ। पूनः शुरवीर उसकी परलोक सम्बन्धी सब क्रियाके पूर्ण होने पर अपने नगरको वापस जाते हुए यक्षीको देखकर पूछा-कि कहो, क्या मेरा साला तुम्हारा पति हो गया? ऐसा पूछने पर वह बोली-कि उसने मरते समय श्रावकके समस्त व्रत समुदायको स्वीकार कर लिया था, इसलिए वह हीन व्यन्तर देवोंकी गतिसे पराङमुख होकर सौधर्म स्वर्गमें उत्पन्न हुआ हैं और इस प्रकार मेरा पति होनेसे छुटकारा पाकर स्वर्गके उत्तम दिव्य भोगोंका अनुभव कर रहा है। यक्षीका यह कयन सुनकर और हृदयगत उसके वचनका अर्थ निश्चय कर उसने मनमें कहा-अहो व्रतका प्रभाव अभिलषित फलके देने में समर्थ है। और फिर समाधिगुप्त मुनिराजके समीप जाकर उसने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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