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________________ श्रावकाचार-संग्रह गृहकर्ममापि निचितं कर्म विमाष्टि खल गहविमुक्तानाम् ॥ अतिथीनां प्रतिपूनां धिरमलं धावते पारि॥ ११४ उच्चत्रं प्रणतर्भोगो दानादुपासनात् पूजा । मक्तेः सुन्दररूपं स्तवनात्कोतिस्तपोनिधिषु ॥११५ क्षितिगतमिव बटबीजं पात्रगतं दानमल्पमपि काले। फलति छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृताम् ।। ११६ आहारोषधयोरप्युपकरणावासयोश्च रानेन । बयावृत्त्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्त्राः ।। ११७ भीषण-वषमसेने कौण्डेशः शूकरश्च दृष्टान्ताः । यावृत्त्यस्यैते चतुर्विकल्पस्य मन्तव्याः ।। ११८ देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिहरणम् । कामदुहि कामवाहिनि परिचिनुयावाढतो नित्यम् ११९ हरितपिधाननिधाने ह्यनादरास्मरणमत्सरत्वानि । वैयावृत्यस्यते व्यतिक्रमा: पञ्चकन्यन्ते।।१२१ इति स्वामिसमन्तभद्राचार्यविरचिते रत्नकरण्डकापरनाम्नि उपासकाध्ययने शिक्षाव्रतवर्णनं नाम पञ्चममध्ययनम् ।। और बुहारी, इन पाँचके आरम्भको पचसूना कहते हैं । जो इनसे रहित है. वही पात्र कहलानेके योग्य है । साधुके आहारार्थ द्वारके आगे आने पर उन्हें पडिगाहना, ऊँचे आसनपर बैठाना, पाद-प्रक्षालन करना, अर्चन-पूजन करना, प्रणाम करना, मन शुद्ध रखना, वचन शुद्ध बोलना. काय शुद्ध रखना और भोजनकी शुद्धि रखना, ये नो पुण्य हैं. जोकि नवधा भक्केि नामसे प्रसिद्ध है । श्रद्धा, सन्तोष, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और सत्य ये दाताके सात गुण होते है। इन गुणोंसे युक्त दाताको पंचसूनासे रहित साधुओंके लिए नवधा भक्तिसे आहारादिकके देनेको दान कहते हैं । अब आचार्य दानका फल बतलाते है-गृहसे रहित अतिथिजनोंको पूजा-सत्कारके साथ दिया गया दान गृहस्थोके गृह-कार्योसे संचित पापकर्मको दूर कर देता है। जैसे कि जल रक्तको अच्छी तरह धो डालता है ॥११४ । तपोनिधि साधुओको नमस्कार करनेसे उच्च गोत्र, दान देनेसे भोग, उपासना करनेसे पूजा, भक्ति करनेसे सुन्दर रूप और स्तुति करनेसे कीर्ति प्राप्त होती हैं ॥११५॥ उत्तम भूमिमैं बोये गये वटके छोटेसे भी बीजके समान पात्र में दिया गया अल्प भी दान समय आनेपर प्राणियोंके छायारूप वैभवके साथ भारी मिष्ट फलको देता हैं ।। ११६ ॥ वैयावृत्त्य भेद और उनके देनेवालोंमें प्रसिद्ध पुरुषोंका वर्णन है - आहार, औषधि, उपकरण (ज्ञानसंयमके साधन शास्त्र, पीछी कमंडलु) और आवास ( वसतिका ) के दानसे वैयावृत्त्यको ज्ञानी जन चार प्रकारका कहते ॥११७।। इस चार भेदरूप वैयावृत्त्यके क्रमशः श्रीषेणः राजा, वृषभसेना वणिक पुत्री, कौण्डेशमुनि और सूकरको दृष्टान्त जानना चाहिए। अर्थात् ये चारों क्रमसे आहारादि दानोंके देनेवालोंमें सबसे अ धक प्रसिद्ध हुए हैं ॥ ११८।। अब आचार्य बतलाते है कि वैयावुत्त्य करनेवाले गृहस्थको जिन-पूजन भी मावश्यक हैं--आदरपूर्वक नित्य सर्वकामनाओंके पूर्ण करनेवाले और कामविकारके जलानेवाले देवाधिदेव श्रीजिनेन्द्र भगवानकी सर्व दुःखोंको विनाशक परिचर्या अर्थात् पूजा-अर्चा भी करनी चाहिए॥११९। राजगृह नगर में अति प्रमोदको प्राप्त मेंढकने एक पुष्पके द्वारा पूजनके भावसे अरहन्तदेवके चरणोंकी पूजाके माहात्म्यको महात्मा पुरुषोंके आगे प्रकट किया है ।। १२० ।। इस वैयावृत्त्य शिक्षाव्रतके पाँच अतिचार इस प्रकार कहे गये हैं-हरित पत्रसे ढकी वस्तुको आहारमे देना, हरित पत्रपर रखी वस्तुको आहारमें देना, अनादरपूर्वक आहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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