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________________ १३ वाक्कायमानसानां दुःप्रणिधानान्यनादरास्मरणे । सामयिकस्यातिगमाः व्यज्यन्ते पञ्च भावेन ॥ १०५ पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदिच्छाभिः ॥ १०६ पञ्चानां पापानामलं क्रियाऽऽरम्भगन्धपुष्पाणाम् । स्नानाञ्जननस्याना मुषवासे परिहृतं कुर्यात् १०७ धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान् । ज्ञान-ध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रालुः ॥ १०८ चतुराहारविसर्जनमुपवास: प्रोषधः सकृद् भुक्तिः । स प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारंभमाचरति ।। १०९ ग्रहण विसर्गास्तरणान्यदृष्टसृष्टान्यनादरास्मरणे । यत्प्रोषधोपवासव्यति लंघन पञ्चकं तदिदम् ११० दानं वैयावृत्त्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये । अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन ॥ १११ व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ॥ ११२ नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन । अपसूनारम्भाणामार्यांणामिष्यते दानम् ॥ ११३ रत्नकरण्ड श्रावकाचार स्वरूपसे भिन्न है तथा मोक्ष इससे विपरीत स्वभाववाला है, अर्थात् शरणरूप हैं, शुद्धरूप हैं, नित्य हैं, सुखमय हैं और आत्मस्वरूप है । भावार्थ- संसार, देह और भोर्गोसे उदासीन होनेके लिए अनित्य, अशरण आदि भावनाओंका तथा मोक्षप्राप्ति के लिए उसके नित्य शाश्वत सुखरूपका चिन्तवन करे ॥ १०४ ॥ इस सामायिक शिक्षाव्रत के ये पाँच अतिचार हैं- सामायिक करते समय वचनका दुरुपयोग करना, मनमें संकल्प-विकल्प करना, कायका हलन चलन करना, सामायिक में अनादर करना और सामायिक करना भूल जाना। इनको सामायिक करते समय नहीं करना चाहिये ।। १०५ ।। अब प्रोषधोपवास शिक्षा व्रतका वर्णन करते हैं - चतुर्दशी और अष्टमी के दिन सद्उपवास के दिन हिंसादिक पाँचों पापोंका, अलंकार, आरम्भ, गन्ध पुष्प, स्नान, अंजन और सूंघनी आदिका परित्याग करे ।। १०७ ॥ उपवास करनेवाले श्रावकको चाहिए कि वह तन्द्रा और आलस्य - से रहित होकर उपवास करते हुए अति उत्कण्ठा के साथ धर्मरूप अमृतको दोनों कानोंसे पान करे और दूसरों को भी पिलावे तथा ज्ञान और ध्यानमें तत्पर रहे ॥ १०८ ॥ चारों प्रकारके आहारका त्याग करना उपवास कहलाता हैं और एक वार भोजन करनेको प्रोषध कहते है । इस प्रकार एकाशन रूप प्रोषध के साथ उपवास करनेको प्रोषधोपवास कहते है । इस प्रकार के प्रोषधोपवासको करके ही श्रावक गृहस्थी के आरम्भको करता हैं । अर्थात् प्रोषधोपवासके काल में वह सर्व प्रकार के गृहारम्भसे रहित रहता हैं ।। १०९ ।। . इस प्रोषधोपवासव्रत के उल्लंघन करनेवाले पाँच अतिचार इस प्रकार हैं- उपवास के दिन विना देखे शोधे किसी वस्तुका ब्रहण करना, विना देख - शोधे मल-मूत्रादिका उत्सर्ग करना, विना देखे - शोधे विस्तरादिका बिछाना, उपवास करने में आदर नहीं करना और उपवास करना भूल जाना । अतः उपवासके दिन धर्म-साधन देख शोधकर आदर और उत्साह के ११० ।। अब आचार्य वैयावृत्य नामक चौथे शिक्षाव्रतका वर्णन करते हैंगृहसे रहित अर्थात् गृहत्यागी, गुणनिधान, तपोधनको अपना धर्म पालन करने के लिए उपचार ( प्रतिदान) और उपकारकी अपेक्षासे रहित होकर विधिपूर्वक अपने विभवके अनुसार दान देने को वैयावृत्य कहते हैं ।। १११ ॥ गुणानुरागसे संयमी पुरुषोंकी आपत्तियोंको दूर करना, उनके चरणों का मदन करना ( दाबना ) तथा इसी प्रकारकी और भी जो उनकी सेवा टहल या सार-सँभाल की जाती हैं वह सब वैयावृक्य है ॥ ११२ ॥ पाँचसूनारूप पापकार्यों से रहित आर्यं पुरुषोंको ना पुण्यों के साथ शुद्ध सप्त गुण से संयुक्त श्रावकके द्वारा जो आहारादि देनेके रूपमें आदर-सत्कार किया जाता हैं, वह दान कहा जाता हैं ।। ११३ || विशेषार्थ ओखली, चक्की, चौका-चूल्हा, जलघटी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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