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________________ १२ श्रावकाचार-संग्रह आसमयमुक्ति मुक्तं पञ्चाघानामशेषभावेन । सर्वत्र च सामयिकाः सामयिकं नाम शंसन्ति ॥९७ मूधरुहमुष्टि वासोबन्धं पर्यवन्धनं चापि । स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः ॥९८ एकान्ते सामयिकं निक्षेपे वनेष वास्तुषु च । चैत्यालयेषु वापि च परिचेतव्यं प्रसन्नधिया।।९९ व्यापार-वैमनस्याद् विनिवृत्त्यामन्तरात्मविनिवृत्या । सामयिकं बध्नीयादुपवासे चैकभश्ते वा ॥१०० सामयिकं प्रतिदिवसं यथावदप्यनसलसेन चेतव्यम व्रतपञ्चकपरिपूरणकारणमवधानयक्तेन।।१०१ सामयिकं सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि । चेलोपमष्टमनिरिव गही तदा याति यतिभावम १०२ शीतोष्णदंशमशकपरीषहमुपसर्गमपि च मौनधराः । सामयिकं प्रतिपन्ना अधिकुऊरनचलयोग।।५०३ अशरणमशुभमनित्यं दुःखमनात्मानमावसामि भवम् । मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके१०४ ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना । इन कार्योको करनेसे सीमाके बाहर स्वयं नहीं जानेपर भी व्रतमें दोष लगता हैं ।।९६।। अब सामायिक शिक्षाव्रतका वर्णन करते हैं सामायिकका समय पूर्ण होने तक हिंसादि पाँचों भावोंका पूर्णरूपसे अर्थात् मन-वचन-काय और कृत कारित अनुमोदनासे त्याग करनेको आगमके ज्ञाता पुरुष सामायिक कहते हैं।९७॥ केशबन्धन, मष्टिबन्धन, वस्त्रबन्धन, पर्यङ्कासनबन्धन, स्थान ( खडे रहना ) और उपवेशन (बैठना ) इनको सामायिकके जानकार सामायिकका समय जानते हैं || ९८ || भावार्थ-जिस प्रकार तीसरी प्रतिमाधारी श्रावकको कमसे कम दो घडी और अधिकसे अधिक छह घडी सामायिककालका निर्देश किया गया हैं उस प्रकारका बन्धन बारहव्रतोंका अभ्यास करनेवाले गृहस्थके लिए नहीं हैं | गृहस्थ सामायियका अभ्यास धोरेधीरे अल्पकालसे प्रारम्भ करता है और उत्तरोत्तर समयको बढाता जाता है। उसका मुख्य लक्ष्य आर्त और रौद्रध्यानसे तथा संक्लेशभावसे बचकर आत्मामें स्थिर होने का है । प्रारम्भिक अभ्यासीको जबतक किसी प्रकारकी आकुलता नहीं होती है, तभी तक वह सामायिक में स्थिर होकर बैठ सकता है। सामायिक प्रारम्भ करने के पूर्व वह शिर-केश चोटी आदिकी गाँठ लगाता हे पहिने और ओढे हुए वस्त्रकी गाँठ लगाता है, जिसका भाव यह है कि सामायिक करते समय वायुसे उडकर ये मनको व्याकुळ न करे । सामायिकमें बैठते हुए पद्मासनमें हाथोंकी मुट्ठिको बाँधता है अर्थात् दाहिनी हथेलीको बाई हथेलीके ऊपर रखता है तथा कभी खडे होकर भी सामायिक करता है | इन सबमें यही भाव निहित है कि जब तक मुझे बैठने या खडे रहने में आकुलता नहीं होगी, तब तक में सामायिक करूँगा । इस प्रकार जबतक मेरे केशबन्ध आदि रहेगे, तबतक मैं सामायिक करूँगा, ऐसी मर्यादाको सामायिकका काल जानना चाहिए | जहाँपर चित्तमें विक्षोभ उत्पन्न न हो ऐसे एकान्त स्थानमें, वनोंमें, वसतिकाओंमें अथवा चैत्यालयोंमें प्रसन्न चित्तसे सामायिककी वृद्धि करना चाहिए ॥९९|| उपवास अथवा एकाशनके दिन गहव्यापार और मनकी व्यग्रताको दूर करके अन्तरात्माम उत्पन्न होनेवाले विकल्पोंको निवृत्ति के साथ सामायिकका अनुष्ठान प्रारम्भ करे ।। १००॥ पुनः आलस्य-रहित होकर सावधानीके साथ पाँचों व्रतोंकी पूर्णता करने के कारणभूत सामायिकका प्रतिदिन अभ्यास बढाना चाहिए ॥१०१|| यतः सामायिककालमें आरम्भसहित सभी परिग्रह नहीं होते हैं। अतः उस समय गृहस्थ वस्त्रसें वेष्टित मुनिके समान मुनिपनेको प्राप्त होता है ||१०|| सामायिकको प्राप्त हुए गृहस्थोंको चाहिए कि वे सामायिकके समय शीत, उष्ण और दंश-मशक आदि परिषहको तथा अकस्मात् आये हुए उपसर्गको भी मान-धारण करते हुए अचलयोगी होकर अर्थात् मन-वचनकायकी दृढताके साथ सहन करे ||१०३।। सामायिकके समय श्रावकको ऐसा विचार करना चाहिए कि जिस संसारमें में रह रहा हूँ वह अशरण है, अशुभ है, अनित्य है, दुःखरूप है और मेरे आत्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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