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________________ १२४ श्रावकाचार-संग्रह हि-'सकलनिष्कलाप्तप्राप्तमन्त्रतन्त्रापेक्षदीक्षालक्षणाच्छद्धामात्रानुसरणान्मोक्ष: 'इति सैद्धान्तवैशेविकाः, द्रव्यगुणकर्मसामान्यसमवायान्त्यविशेषाभावाभिधानानां पदार्थानां साधर्म्यवैधावबोधतन्त्राज्जानमात्रात्' इति ताकिकवशेषिकाः, 'त्रिकालभस्मोद्धूलनेज्यागडुकप्रदानप्रदक्षिणीकारणास्मविडम्बनादिक्रियाकाण्डमात्राधिष्ठानादनुष्ठानात्' इति पाशपताः, सर्वेष पेयापेयमक्ष्याभक्ष्याविषु निःशङ्कचित्ताद् वृत्तात्' इति कुलाचार्यकाः । तथा च त्रिकमतोक्ति:-'मदिरामोदमेदुरवदनस्तरसरसप्रसन्नहृदयः सव्यपाश्र्वविनिवेशितशक्तिः शक्तिर्मुद्रासनधर ; स्वयमुमामहेश्वरायमाणः कृष्णया शर्वाणीश्वरमाराधयेदिति । प्रकृतिपुरुषयोविवेकमतेः ख्याते:' इति सांख्याः, 'नैरात्म्यादिनिवेवित. संभावनातो भावनातः' इति दशलशिष्या:, अङ्गाराजनादिवत्स्वभावादेव कालुष्योत्कर्षप्रवृत्तस्य चित्तस्य न कुतश्चिद्विशद्धचित्तवृत्तिः इति जैमिनीयाः, 'सति मिणि धर्माश्चिन्त्यन्ते ततः परलोकिनोऽभावात्परलोकाभावे कस्यासो मोक्षः' इति समवाप्तसमस्तनास्तिकाधिपत्या बार्हस्पत्याः,'परमब्रह्मवर्शनवशादशेषभेवसंवेदनाविद्याविनाशात्' इति वेवान्तवादिनः, 'नवान्तस्तत्वमस्तीह न बहिस्तत्त्वमञ्जसा । विचारगोचरातीतेः शून्यता श्रेयसी ततः ।।८ इति पश्यतोहरा: प्रकाशितशून्यतैकान्ततिमिराः शाक्य विशेषाः, तथा 'ज्ञानसुखदुःखेच्छादेषप्रयत्नधर्मसंस्काराणा नवसंख्यावसराणामात्मगुणानामत्यन्तोन्मुक्तिमश्तिः' इति काणावाः । तदुक्तम्"बहिः शरीराद्यद्रूपमात्मन: संप्रतीयते । उक्तं तदेव मुक्तस्य मुनिना कणभोजिना" ।। ९ ___निरामयचित्तोत्पत्तिलक्षणो मोक्षक्षण इति ताथागताः । तदुक्तम्निःशंक चित्तसे समस्त पीने योग्य,न पीने योग्य, खाने योग्य, न खाने योग्य पदार्थोमें प्रवृत्ति करनेसे मोक्ष होता है। त्रिकमतमें लिखा है कि शराबकी सुगन्धसे मुखको सुवासित करके, मांसके स्वादसे हृदयको प्रसन्न करके और वाम पार्श्वमें स्त्री शक्तिको स्थापित करके योनि-मुद्रा आसनका धारक स्वयं ही शिव और पार्वती बनकर मदिराके द्वारा उमा और महेश्वरकी आराधना करे । ५.सांख्योंका कहना हैं कि प्रकृति और पुरुषके भेदज्ञानसे मोक्ष होता हैं । ६. बुद्धके शिष्योंका कहना है कि नैरात्म्य भावनाके अभ्याससे मोक्ष होता है । ७. जैमिनीयोंका मत हैं कि कोयले और अंजनकी तरह स्वभावसे ही कलुषित चित्तकी चित्तवृत्ति विशुद्ध नहीं हो सकती। अर्थात् जैसे कोयलेको घिसनेपर भी वह सफेद नहीं हो सकता,उसी प्रकार स्वभावसे ही मलिन चित्त विशुद्ध नहीं हो सकता । ८. नास्तिक शिरोमणि बृहस्पतिके अनुयायी चार्वाकोंका कहना है कि धर्मीके होनेपर ही धर्मोका विचार किया जाता हैं। अतः परलोकमें जानेवाली किसी आत्माके न होनेसे जब परलोक ही नहीं हैं तब मोक्ष होता किसको हैं? अर्थात् जब आत्मा ही नहीं है तो मोक्षकी बात ही बेकार हैं । ९. वेदात्तियोंका मत है कि परम ब्रह्मका दर्शन होनेसे समस्त भेदज्ञानको करानेवाली अविद्याका नाश हो जाता है और उससे मोक्ष की प्राप्ति होती हैं । १०. दिखाई देनेवाले विश्वका भी निषेध करनेवाले शत्यतैकान्तवादी बौद्धविशेषोंका मत है कि न कोई अन्तस्तत्त्व आत्मा वगैरह है और न कोई वास्तविक बाहरी तत्त्व घटादिक ही है,दोनों ही विचारगोचर नहीं हैं, अतः शून्यता ही श्रेष्ठ हैं ।।८।। ११. कणादके अनुयायियोंका मत है कि ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म और अधर्म, आत्माके इन नौ गुणोंका अत्यन्त अभाव हो जानेको हो मुक्ति कहते है। कहा भी है-'शरीरसे बाहर आत्माका जो स्वरूप प्रतीत होता है,कणाद मुनिने उसीको मुक्तात्माका स्वरूप कहा है। ९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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