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________________ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन "दिश न कांचिद्विदिशं न कांचिन्नवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतः स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ।। १० दिशं न कांचिद्विदिशं न कांनिन्नवानि गच्छति नान्तरिक्षम । जीवस्तथा निर्वतिमभ्यपतः क्लेशक्षयात्केवलमेति शान्तिम्" ।। ११ 'बुद्धिमनोऽहंकार विरहादखिलेन्द्रियोपशमावहात्तदा द्रष्टः स्वरूपेऽवस्थानं मुक्तिः' इति कापिला: । 'यथा घटविघ ने घटाकाशमाकाशीभवति तथा देहोच्छेदात्सर्वः प्राणी परब्रह्मणि लीयते' इति ब्रह्माद्वैतवादिनः। अज्ञातपरमार्थानामेवमन्यऽपि दुर्नया: । मिथ्याशा न गण्यन्ते जात्यन्धानामिव द्विपे ।। १२ प्राय: संप्रति कोपाय सन्मार्गस्योपदेशनम् । निर्लननासिकस्येव विशुद्धादर्शदर्शनम् ।। १३ दृष्टान्ता: सन्त्यसख्येया मतिस्तद्वशतिनो । कि न कुर्यमही धूर्ता विवेकरहितामिमाम् ।। १४ दुराग्रहग्रहग्रस्ते विद्वान्पुंसि करोतु किम् । कृष्णपाषाणखण्डेषु मार्दवाय न तोयदः ।। १५ ईर्ते युक्ति यदेवात्र तदेव परमार्थसत् । यद्भानुदीप्तिवत्तस्याः पक्षपातोऽस्ति न क्वचित् ॥ १६ श्रद्धा श्रेयोऽथिनां श्रेय:संश्रयाय न केवला । बक्षभितवशात्पाको जायेत किमदम्बरे ।। १७ पात्रावेशादिवन्मन्त्रादात्मदोषपरिक्षय: । दृश्येत यदि को नाम कृती क्लिश्येत संयमैः ॥ १८ १२. बौद्धोंका कहना हैं कि निराश्रय चित्तकी उत्पत्ति हो जाना हो मोक्ष हैं। कहा भी हैं-"जैसे दीपक वुझ जानेपर न किसी दिशाको चला जाता है,न किसी विदिशाको चला जाता हैं । न नीचे पृथ्वीमें समा जाता हैं और न ऊपर आकाश में समा जाता है, किन्तु तेलके क्षय हो जानेसे शान्त हो जाता है। उसी तरह निर्माणको प्राप्त हुआ जीव न किसी दिशाको जाता हैं,न किसी विदिशाको जाता हैं,न पृथ्वीमें समा जाता हैं और न ऊपर आकाशमें समा जाता है, किन्तु क्लेशोंके क्षय हो जानेसे शान्त हो जाता हैं"||१०-११।। १३.बुद्धि, मन और अहंकारका अभाव हो जानेके कारण समस्त इन्द्रियोंके शान्त हो जानेसे पुरुषका अपने चैतन्य स्वरूपमें स्थित होना मोक्ष हैं, ऐसा कपिल ऋषिके अनुयायी मानते हैं । ब्रह्माद्वैतवादियोंका कहना हैं कि जैसे घटके फूट जानेपर घटसे रोका हुआ आकाश आकाशमें मिल जाता हैं, उसी तरह शरीरका विनाश हो जानेपर सव प्राणी परम ब्रह्ममें लीन हो जाते है। जिस तरह जन्मान्ध मनुष्य हाथीके विषयमें विचित्र कल्पनाएँ कर लेते हैं, उसी तरह परमार्थको न जाननेवाले मिथ्यामतवादियोंने अन्य भी अनेक मत कल्पित कर रखे हैं, उनकी गणना करना भी कठिन है ।।१२।। (इस प्रकार मोक्षके विषयमें अन्य मतोंको बतला कर आचार्य विचारते हैं-) जैसे नकटे मनुष्यको स्वच्छ दर्पण दिखानेसे उसे क्रोध आता है, वैसे ही आजकल सन्मार्गका उपदेश भी प्रायः लोगोंके क्रोधका कारण होता है ॥१३॥ संसारमें दृष्टान्तोंकी कमी नहीं हैं, दृष्टान्तोंको सुनकर लोगोंकी बुद्धि उनके आधीन हो जाती हैं । ठीक ही है-धूर्त लोग इस विवेक शून्य पृश्वीवर क्या नहीं कर सकते॥१४। जो पुरुष दुराग्रह रूपी राहुसे ग्रस लिया गया है अर्थात् जो अपनी बुरी हठको पकडे हुए है उस पुरुषको विद्वान् कैसे समझावें । मेघके बरसनेसे काले पत्थरके टुकडोंमें कोमलता नहीं आती॥१५॥फिर भी इस लोकमें जो वस्तु युक्तिसिद्ध हो वही सत्य हैं,क्योंकि सूर्य की किरणोंकी तरह युक्ति भी किसीका पक्षपात नहीं करती ।।१६।। (इस प्रकार मनमें विचार कर आचार्य यहाँसे उक्त मतान्तरोंका क्रमशः निराकरण करते है-) १. कल्याण चाहनेवालोंका कल्याण केवल श्रद्धा मात्रसे नहीं हो सकता । क्या भूख लगनेसे ही गूलर पक जाते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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