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________________ १२६ श्रावकाचार-संग्रह दीक्षाक्षणान्तरात्पूर्व ये दोषा भवसंभवाः । ते पश्चादपि दृश्यन्ते तन्न सा मुक्तिकारणम् ॥ १९ ज्ञानादवगमोऽर्थानां न तत्कार्यसमागमः । तर्षापकर्षयोगि स्यादृष्टमेवान्यथा पयः !। २० ज्ञानहीने क्रिया पुसि परं नारभते फलम् । तरोश्छायेव कि लभ्या फलश्रीनष्टदृष्टिभिः ॥ २१ ज्ञानं पङ्गों क्रिया चान्धे निःश्रद्धे नार्थकृदयम् । ततो ज्ञानक्रियाश्रद्धात्रयं तत्पदकारणम् ।। २२ उक्तं च "हतं ज्ञानं क्रियाशून्यं हता चाज्ञानिनः क्रिया । धावन्नप्यन्धको नष्ट: पश्यन्नपि च पङ्गलः ॥२३ निःशङ्कात्मप्रवृत्तेः स्याद्यदि मोक्षसमीक्षणम् । ठकसूनाकृतां पूर्व पश्चात्कौलेष्वसौं भवेत् ।। २४ अव्यक्तनरयोनित्यं नित्यव्यापिस्वभावयोः । विवेकेन कथं ख्याति सांख्यमुख्या: प्रचक्षते ॥ २५ है? ॥१७॥ उचित व्यक्तिमें आगत भूतावेशकी तरह यदि मन्त्र पाठसे ही आत्माके दोषोंका नाश होता देखा जाता, कौन मनुष्य संयम धारण करनेका क्लेश उठाता ॥१८।। दीक्षा धारण करनेसे पहले जो सांसारिक दोष देखे जाते हैं,दीक्षा धारण करने के बाद भी वे दोष देखे जाते हैं । अतः केवल दीक्षा भी मुक्तिका कारण नहीं है ।।१९।। भावार्थ पहले सैद्धान्त वैशेषिकोंका मत बतलाते हए कहा हैं कि वे मन्त्र-तन्त्र पूर्वक दीक्षा धारण करने और उनपर श्रद्धा मात्र रखनेसे मोक्ष मानते है। उसीकी आलोचना करते हुए आचार्य कहते है कि न केवल श्रद्धासे ही मोक्ष प्राप्त हो सकता हैं और न मन्त्र-तन्त्र पूर्वक दीक्षा धारण करनेसे ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है। श्रद्धा तो मात्र रुचिको बतलाती है,किन्तु किसी चीजपर श्रद्धा हो जाने मात्रसे ही तो वह प्राप्त नहीं हो जाती। इसी तरह दीक्षा धारण कर लेने मात्रसे भी काम नहीं चलता,क्योंकि दीक्षा लेनेपर भी यदि सांसारिक दोषोंके विनाशका प्रयत्न न किया जाये तो वे दोष जैसे दीक्षा लेनेसे पहले देखे जाते हैं वैसे ही दीक्षा धारण करनेके बादमें भी देखे जाते हैं। यदि केवल श्रद्धा या दीक्षासे ही काम चल सकता होता तो संयम धारण करनेके कष्टोंको उठानेकी जरूरत ही नहीं रहती अतः ये मोक्षके कारण नहीं माने जा सकते। (अब आचार्य बिना ज्ञानकी क्रियाको और बिना क्रियाके ज्ञानको व्यर्थ बतलाते है-) २. ३. ज्ञानसे पदार्थोका बोध होता हैं, किन्तु उन्हें जानने मात्रसे उन पदार्थोका कार्य होता नहीं देखा जाता। यदि ऐसा होता तो पानीके देखते ही प्यास बुझ जानी चाहिए ।।२०॥ तथा ज्ञानहीन पुरुषकी क्रिया फलदायी नहीं होगी । क्या अन्धे मनुष्य वृक्ष को छायाकी तरह उसके फलोंकी शोभाका आनन्द ले सकते है? ।।२१।। क्रियाहीन पंगुका ज्ञान और ज्ञानहीन अन्धेकी क्रिया दोनों ही कार्यकारी नहीं है। अतः ज्ञान,चारित्र और श्रद्धा तीनों ही मिलकर मोक्षका कारण है ।।२२।। कहा भी हैं क्रियाकाचरणसे शन्य ज्ञान भी व्यर्थ हैं और अज्ञानीकी क्रिया भी व्यर्थ हैं। देखो,एक जंगल में आग लगमेपर अन्धा मनुष्य दौड-भाग करके भी नहीं बच सका,क्योंकि वह देख नहीं सकता था और लँगडा मनष्य आगको देखते हुए भी न भाग सकनेके कारण उसीमें जल मरा।।२३। (कौल मतवादियोंको आचार्य उत्तर देते है-) ४. यदि मद्य-मांस वगैरहमें निःशङ्क होकर प्रवृत्ति करनेसे मोक्षकी प्राप्ति हो सकती तो सबसे पहले तो ठगों और मांस बेचनेवाले कसाइयोंकी मुक्ति होनी चाहिए। उनके पीछे कौल मतवालोंकी मुक्ति होनी चाहिए।॥२४॥ (इस प्रकार केवल ज्ञान या केवल चारित्रसे मक्तिकी प्राप्तिको असम्भव बतलाकर आगे आचार्य सांख्य मतकी आलोचना करते है.) ५. सांख्य मतमें प्रकृति और पुरुष दोनों व्यापक और नित्य माने गये है। ऐसी अवस्थामें उनमें भेद ग्रहण कैसे सम्भव है? अर्थात् व्यापक और नित्य होनेसे प्रकृति और पुरुष दोनों सदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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